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शनिवार, 26 दिसंबर 2015

रिसता यौवन


कब इस शांत-लहर-डर मन में उद्वेलित सुनामी जागेगी?
इस घुटते मरते यौवन में कब चिंगारी सी भागेगी?

काला अँधा सा ये जीवन, कैसा है यह बिका बिका?
क्यों हर चेहरा मुरझाया सा, क्यों है हर तन थका थका?
कब दौड़ेगी लाल लहू में, इक आग यूँ ही बैरागी सी?
स्फूर्ति-समर्पण-सम्मान सघन सी, निश्छल यूँ अनुरागी सी
कब इस शांत-लहर-डर मन में...

आँखें देखो धँसी-फटी सी, अंगूठे कैसे शिथिल-कटे
कपड़े ज्यों रुपयों की माला, आत्म-कपड़े चीथड़े-फटे
कब तक बिकेगा ये स्वर्णिम यौवन, यूँ ही कौड़ी कटोरे में?
आँखें तेज़, ऊँचा सीना, कदम हो विजयी हिलोरे ले
कब इस शांत-लहर-डर मन में...

क्यों है सोया-खोया जवां ये, आँखें खोले, खड़े हुए?
देखते नहीं सपने ये जिनमें, निद्रा-क्लांत हैं धरे हुए?
कब इन धूमिल आँखों का जल, लवण अपनी उड़ाएगा?
स्पष्ट निष्कलंक हो कर के फिर से, सच्चाई को पाएगा
कब इस शांत-लहर-डर मन में...

कैसा है ये स्वार्थ जो इनमें, अपने में ही घिरे हुए
५ इंच टकटकी लगाए, अपनी धुन में परे हुए
ज़िन्दा है या लाश है इनकी, नब्ज़ें ऐसी शिथिल हुई
हकीकत की लहरा दे सिहरन, कहाँ है वो जादुई सुई?
कब इस शांत-लहर-डर मन में...

भौतिकता में फूंकी जाती, देखो जवानी चमकती सी
बस पहन-ओढ़-खा-पी के कहते, ज़िन्दगी है बरसती सी
कब बिजली एक दहकती सी, इस भ्रांत स्वप्न को फूंकेगी?
फिर जल-बरस बेहया सी इनपर, यथार्थ धरा पर सुलगेगी
कब इस शांत-लहर-डर मन में...

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

दो दिन ज़िन्दगी के

याद है वो कहावत, "चार दिन की है ये ज़िन्दगी.."? याद तो होगा ही, पर मुझे लगता है कि समय आ गया है इस कहावत को बदलने का। अब क्या कहें, समय और समाज में जो बदलाव आये हैं उसमें तो ये बदली हुई पंक्तियाँ ही सटीक लग रही हैं "दो दिन ज़िन्दगी के.."

कितनी आसान थी उस छोटे से शहर में अपने छोटे ख़्वाबों को चुनते, एक दूसरे से बुनते हुए वो साधारण सी ज़िन्दगी। आह! सरल, सुखी और समृद्ध सा अलसाया हुआ जीवन। मुझे याद नहीं आता कि कभी हम हफ्ते के उन दो दिनों का इतने बेसब्री से इंतज़ार करते हों जितना आज करते हैं। बड़े शहर में आ कर सपने तो बड़े हो गए पर समय? समय दिन-ब-दिन छोटा होता जा रहा है।

सुबह से शाम कब हो जाती है, AC के डब्बे में बैठकर पता ही नहीं चलता। मौसम को आखिरी बार बदलते हुए कब देखा था पता नहीं। अब तो सिर्फ सर्दी-जुखाम-बुखार से ही बदलते मौसम का अंदेशा होता है। 5 दिन कब हवा बन के नज़रों के सामने से गुज़र जाती है ये खबर कानों को भी नहीं मिलती। खबर बस यही गरम रहती है कि "भाई, Saturday-Sunday आ गया"! ऐसा लगता है मानो हम इन दो दिनों के सेवक बन गए हैं। 5 दिन किसी और की सेवा करते हैं और 2 दिन शनि-रवि की।

कैसी घिसती हुई सी ये ज़िन्दगी हो गई है जो
हर हफ्ते उन दो दिनों की मोहताज हो जाती है,
हर हफ्ते वही दो दिन जिसमें हम जीने की कोशिश करते रहते हैं,
वही दो दिन जब हम अपने आसपास एक छलावे भरा जाल बुनकर समझते हैं कि इसमें हम जी लेंगे,
वही दो दिन जब हम अपने परिवार के साथ कुछ वक़्त बिताने की कोशिश करते हैं!

पर सोमवार आते ही रटते वही हैं कि "यार ये दो दिन कब उड़ गए पता ही नहीं चला"। सवाल ये है कि क्या हम अपनी ज़िन्दगी को बस उड़ते हुए ही देख रहे हैं या असल में जी भी रहे हैं?

क्या ज़िन्दगी का मकसद बहुत पैसे कमाना और उन दो दिनों में उनको बेहिसाब खर्च कर देना ही है? सुबह 8 से शाम की 8 बजाकर अगली सुबह की उधेढ़बुन में ही मचलते रहना, क्या यही है वो ज़िन्दगी जिसकी आप तलाश कर रहे हैं? सवाल तो बहुत बड़ा है पर जवाब इससे भी बड़ा होगा और यह जवाब हमें खुद के गिरेबान में झांककर ही मिलेगा।

ज़िन्दगी आसान तो नहीं ही है पर कम से कम इसे उलझन तो न बनाएं। 2 दिन की छुट्टी मिलेगी या नहीं, यही परेशानी आपको महीनों पहले खाने लगती है। आज घर जल्दी चला जाऊँ क्या? इस बार सैलरी कितनी बढ़ेगी? मेरा बॉस मेरे बारे में क्या सोचता है? मैं ऐसा क्या करूँ की प्रमोशन जल्दी हो जाए? आज हम वो 5 दिन इन्हीं सब सवालों से घिरकर निकाल रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, हम सादी कमीज़ और काली पतलून डाले हुए, हैं तो बंधुआ मजदूर ही। गले में एक कॉर्पोरेट पट्टा डालकर हम बन जाते हैं पूर्णतः एक कॉर्पोरेट कुत्ता!

अपनी जीवन की भीतरी अभिलाषाओं का खून करके, उसका गला घोंटकर, अपने ज़मीर को दबाकर, अपने भीतर के बचपन को मारकर, सलीकेदार बने रहकर, समाज की सीमाओं में बंधकर, एक-एक दिन दासों की तरह काटकर, अपनी उँगलियों को कीबोर्ड पर घिसकर आखिर कब तक हम अपने आपको धोखा देते रहेंगे? कभी सोचा है कि आखिरी साँस लेते वक़्त ये धोखा हमें अपनी मौत से पहले ही मार देगा? कहावत तो बदलते रहेंगे। कभी चार दिन, तो कभी दो दिन की हो जाएगी ज़िन्दगी पर आपके पास तो सिर्फ एक ही ज़िन्दगी है। आप कब इसे हर दिन, हर पल, हर साँस के साथ जीने की ललकता दिखाएँगे? जवाब आप ही के अन्दर है। आने वाले Saturday-Sunday में खोजने की कोशिश कीजियेगा!

शनिवार, 30 मई 2015

खामोश राहें

कितनी खूबसूरत अनुभूति है ये खामोशी। दिन-ब-दिन बढ़ते शोरगुल और मचलती दुनिया में खामोशी अपना एक अलग स्थान रखती है। ये केवल मैं ही नहीं, दुनिया के तमाम लोग समझते होंगे जब अपने आसपास एक सन्नाटा पसर जाता है तो कैसे हम अपने में खो जाते हैं। जब कई दिनों तक ज़िन्दगी की उधेड़बुन में अपना जीवन बहुत तेज़ी से गुज़रता हुआ दिखता है तो क्या ऐसा नहीं लगता कि पहाड़ों पे चला जाए, कुछ दिन मौन-व्रत रखा जाए, ज़िन्दगी को धीमे किया जाए? क्या ऐसा नहीं लगता कि आप अपने घर के छत पर खड़े हो कर शहर के सन्नाटे को सुनने के बजाय देख सकें? इस बात से हम कितने बेखबर जीए जाते हैं कि खामोशी में कितनी शक्ति है, उसमें कितनी ऊर्जा है जो आपके जीवन में, आपके मन में चल रहे उथल-पुथल को, उस सारे बवंडर को, अपनी उसी ऊर्जा से तहस नहस कर देता है।

इस ठहराव के कई और पहलू भी हैं। एक गायक ने मंच पर चढ़ते ही कहा कि गाना ख़त्म होने के करीब १० सेकंड बाद ही ताली बजाएँ। उस १० सेकंड की खामोशी में ही उस गीत का असली रस छुपा है। तबसे मैं कोशिश करता हूँ कि हर गाने को संपूर्णतः सुनूँ और सच मानिए, अब गीतों को सुनने का मज़ा कुछ और ही हो गया है। पश्चिमी संगीत में ठहरावों का बहुत महत्त्व है पर भारतीय संगीत में मौन की उतनी ही महत्ता मैंने कम देखी है। परन्तु कई फ़िल्मी गीतों में हम गाने के बीच में खामोशी को महसूस करते हैं और उस ठहराव के बाद जब पहला सुर लगता है तो मानों दिल को उखाड़ते हुए निकल जाए। पुराने गीतों में 'ऐ दिल-ए-नादान' में आपने इसे महसूस किया होगा। इस खामोशी से अपने दिल को बिन्धवाने के लिए नए गीतों में एक उदाहरण 'हुस्ना' गीत का आता है (पियूष मिश्रा का लिखा/गाया) जो आपको ज़रूर सुनना चाहिए।

गीतों की बात के बाद खामोशी की हमारे निजी जीवन में भी ज़बरदस्त सार्थकता है। कई दफे किसी वार्तालाप में आपकी खामोशी की आपके शब्दों से ज्यादा ज़रूरत होती है। किसी के टूटे हुए दिल को चुप हो के सुनना, किसी के ज़िन्दगी के दर्द को अपनी चुप्पी की आगोश में लेना भी बहुत बड़ी कला है। कम-स-कम जो माहौल आजकल चल पड़ा है जहाँ बोलने वाले लोग ज्यादा और सुनने वाले श्रोता कम हो चले हैं, वहाँ तो यह कला और भी दुर्लभ हुआ जा रहा है। सोशल मीडिया ने हमें बोलना और, और बोलना ही सिखाया है। इसने हमारी श्रवण शक्ति को निर्बल बना दिया है। सबको अपनी बात, बस कहनी है। कोई सुनना नहीं चाहता और यही एक बड़ा कारण है कि हमारे आपसी रिश्तों में भी इसका बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। चाहे बात फेसबुक की करें, ट्विटर की करें या वाट्सऐप की, हर जगह लोग चौबीसों घंटे चटर-चटर करते पाए जाते हैं। इसी नकारात्मकता का एक बहुत ही बुरा परिणाम कुछ दिनों पहले सुनने को मिला जिसमें मेरे ही कॉलेज के एक लड़के ने ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि वह निराशा और उदासी का शिकार हो गया था। सोशल मीडिया पे वह मज़ाकिया और खुश माना जाने वाला इंसान था पर असल ज़िन्दगी में कुछ और ही चल रहा था। शायद उसको सही में सुनने वाला एक भी इंसान न मिला। आज ये एक बहुत बड़ा सवाल है हम सबके सामने कि हम अपनी वाचालता और चुप्पी के बीच एक संतुलन कैसे बनाते हैं।

खामोशी हमारे लिए एक उपहार है जिसका मूल्य हम हर बीतते दिन के साथ भूलते जा रहे हैं। जब तक हम खामोशी से भी बात करना नहीं सीख जाएँगे तब तक हम परिपक्वता का केवल ढोंग कर सकते हैं। कितना सुकून मिलता है जब हम किसी फ़िल्म में नायक-नायिका को आँखों से अपने प्यार का इज़हार और बातें करते हुए देखते हैं। ये खामोशी ही है जो आपके रिश्तों की नींव को मज़बूत करती है। वैसे जाते-जाते बस एक ही बात कहना चाहूँगा। अगर ऊपर की सारी बात हवा हो गई हों तो याद करिये जब किसी दूसरे के घर पर रहते हुए किस खामोशी और चुप्पी से भी आपके माँ-बापू आपकी खबर ले लेते थे! :) आह क्या दिन थे!
अब जब तक आप अपनी कोई टिप्पणी इस पोस्ट पर छोड़ कर जाते हैं, तब तक मैं अपने मन को मौन कर बचपन के किसी एक ऐसी घटना में खो लूँ।

वैसे मुझे बहुत देर से याद आया कि पिछले महीने (16/4) मुझे ब्लॉगिंग करते हुए 7 साल हो चुके हैं. आप सभी का आभार! :)

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

रिश्तों की डोर

रश्मि उन लाखों लड़कियों की तरह है जो आज बेबाक, आज़ाद और खुले माहौल में रहना पसंद करती हैं और रहती भी हैं। पहले पढ़ाई के लिए कई साल घर से दूर रही और उसके बाद से नौकरी करते हुए भी घर से दूर रहती है। रश्मि के मम्मी-पापा ने कभी उसके निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया बस अपने सुझाव भर दिए. आज एक अच्छी कंपनी के एक अच्छी पोस्ट पर रश्मि आसीन है।

जैसा कि अक्सर होता है, माँ-बाप दूर रहने वाले अपने बच्चों से दिन में दो मिनट बात कर दिल को तसल्ली दे देते हैं, वैसा ही यहाँ भी था। हर रोज़ एक-दो दफे माँ और पापा, दोनों से रश्मि की बात हो ही जाती थी। जब बात हाल-चाल तक कि रहती, तब तक तो ठीक था पर जब माँ के सवाल ऑफिस, वहाँ के लोग, दूसरे दोस्त और अन्य निजी मामलों पर पहुँचती तो रश्मि थोड़ी खीज जाती थी। उसे लगने लगता जैसे कोई उसके पंखों को पकड़ कर नीचे गिराने की कोशिश कर रहा है परन्तु ऐसा था नहीं। रश्मि केवल एक बेटी होने की हैसियत से ही सोचती थी। सच ही है, जब तक आप खुद माँ या बाप नहीं बन जाते, आप अपने माँ-बाप का आपके प्रति व्यवहार को समझ नहीं सकते। इसी खीज की वजह से कई बार वह बहाना बना कर फ़ोन काट देती।

ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा और रिश्ता यूँ ही संभालता रहा। पर एक दिन उसके पापा का फ़ोन आया और अगले ही दिन वो अपने घर पर थी। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा उसके साथ भी हो सकता है। पिछले रोज़ ही माँ घर पर काम करती हुई अचानक ज़मीन पर फिसली और दुर्भाग्यवश उनका सिर पास ही रखे टेबल की नोक से जा टकराया। विधि का विधान ही था कि एक चोट ने रश्मि से उसकी माँ को छीन लिया। यह घटना जितनी दर्दनाक थी, उतनी ही ये सभी के लिए भयावह थी। महीने भर तक घर में सन्नाटा पसरा रहा और फिर ज़िन्दगी के क्रूर नियम के हिसाब से सबने अपनी अपनी डोर फिर संभाल ली

रश्मि वापस अपने शहर आ गई और ऑफिस में व्यस्त हो गई पर हर रात वो अपने कमरे के कोने में बैठकर रोती थी। अपने फ़ोन को देखते हुए सोचती थी कि शायद यह सब एक अनचाहा सपना हो और उसके माँ के नाम से यह फ़ोन फिर से बज उठे। वो अपनी माँ से बात करना चाहती थी, उनकी आवाज़ सुनना चाहती थी, अपने ऑफिस, अपने दोस्तों, अपने बारे में, सब कुछ बताना चाहती थी। अब उसके पास कोई बहाना नहीं था पर समय का चक्र निर्दयी होता है। आज एक तरफ जब उसके पास बात न करने का बहाना नहीं था तो दूसरी और उसके फ़ोन के दूसरी ओर से अब कभी माँ की आवाज़ नहीं आती थी। वह ग्लानि और पश्चाताप में जीने को मजबूर थी। अब वो दिन ढल गए थे जब यह सब कितना आसान था।

मंगलवार, 3 मार्च 2015

बुरा तो मानो... होली है!

आजकल लोग बुरा नहीं मान रहे, क्या बात हो गयी है ऐसे? अभी कुछ दिन पहले तक तो लोग सुई गिरने पर भी हल्ला बोल मचा देते थे। अभी कल ही एक दोस्त मिला कई अरसे बाद। मैंने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई कि अब शादी हो गई है तो मिलता नहीं है, जोरू का गुलाम हो गया है, बीवी आते ही दोस्त बेकार हो गए? मुझे लगा कि वो अब आहत हो, तब आहत हो, पर मुए ने सिर तक न हिलाया, मुस्कुराता रहा। मुझे लगा था कि अब बोलेगा, या भड़केगा या बचाव करेगा पर नहीं, जनाब ने मुझे चारों खाने चित कर दिया था। मैं मायूस हो गया और उसके बजाय खुद ही आहत हो लिया। फिर मुझे लगा शायद शादी की डसन ने बेचारे को ज़्यादा उत्तेजित होने की कला से विरक्त कर दिया है तो मैं अपने रास्ते हो लिया।

आजकल फैशन में बुरा मान जाना बहुत चल रहा है इसलिए अगर कोई ऐसा नहीं मानता तो उसके खिलाफ तो मैं खुद ही बुरा मान जाता हूँ कि उसने बुरा क्यों नहीं माना? भई, समाज भी कुछ होता है! हमें बचपन से संस्कार मिला है कि समाज के साथ चलो, उसके जैसा करो, तब समाज आगे बढ़ेगा और तुम भी समाज की नज़रों में हवाओं पर उड़ोगे। बस इसलिए जो समाज में फैले फैशन के खिलाफ जाता है तो हम आहत हो जाते हैं। मैं तो कहता हूँ कि बच्चा परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो तो उसके शिक्षकों से ले कर, माँ-बाप, रिश्तेदार इत्यादियों को भी तुरंत आहत हो लेना चाहिए। इससे समाज का संतुलन बना रहेगा। नहीं तो क्या है कि बच्चा भी घबरा जाएगा कि लोग बुरा क्यों नहीं मान रहे हैं। हमें उस बच्चे की मानसिक हालत की हवा नहीं निकालनी है तो बुरा तो मानना ही होगा। आखिर अनुत्तीर्ण होना तो घोर अपराध है जिससे उसका जीवन व्यर्थ हो सकता है और समाज बर्बाद।


सुबह-शाम, दोपहर-रात, घर-ऑफिस, बस-ट्रेन, मालिक-नौकर, आदमी-जानवर, इत्यादि सभी मौकों और परिस्थितियों को हम आहतों के अनुकूल बना रहे हैं जो कि एक प्रशंसनीय कदम है। एक दोस्तनी को २ दिन तक मेसेज का जवाब नहीं दिया तो तीसरे दिन बुरा लगने का मेसेज आ गया और लिखा था कि वो २ दिन तक कुढ़ती रही थी और वो मुझसे बहुत आहत है क्योंकि मैंने उसके "कैसे हो?" का जवाब नहीं दिया था। मैंने उसे जवाब में लिखा, "मुझे तो तुम्हारा मेसेज ही नहीं मिला और तुम यूँ ही आहत हो ली? फ़ोकट में आहत हो कर कैसा लग रहा है? वैसे भी आजकल चलन में है। :D" उसका जवाब तो अभी तक नहीं आया है। शायद कुछ दिन और कुढ़ेगी। कुढने दीजिये, अच्छा है समाज के लिए। इसी सिलसिले में ४-५ और लोगों को आहत करेगी और ये कड़ी को बढ़ाने में मदद करेगी।

और ये देखिये, बुरा मानने वाला तो सबसे बड़ा त्यौहार भी आ रहा है। मैं तो कह रहा हूँ कि होली की टैगलाइन को बदल कर "बुरा तो मानो होली है!" कर देना चाहिए क्योंकि बुरा मानने वालों की जमात अभी बहुमत में है। इससे सुनहरा मौका नहीं मिलेगा इस आहती सोच को बढ़ाने में। मार्केटिंग के ज़माने में टाइमिंग भी आखिर कोई चीज़ होती है। होली के दिन अगर कोई घर पर आ कर बाहर निकलने को कहे तो साफ़ कह दें कि इस बार वो होली नहीं खेलेंगे क्योंकि वो सरकार से आहत हैं कि उसने अपने वायदे पूरे नहीं किये या फिर कह दें कि इंद्र देव ने बिन मौसम "बरसो रे मेघा" कर दिया इसलिए वो नाक-भौं सिकोड़े बैठे हैं या फिर कह दें कि ओबामा ने भारत के खिलाफ जो बयान दिया है वो उनके गले नहीं उतरी है इसलिए इस साल वो अपने गले से भांग भी नहीं उतरने देंगे। कहने का मतलब है कि टुच्ची से टुच्ची बात के लिए भी अब हमको बुरा मान लेने की आदत डालनी पड़ेगी।

कोई कुछ ट्वीटता है तो ५० लोग हंगामा कर बैठते हैं, उन ५० लोगों के खिलाफ फिर १०० लोग हल्ला बोल देते हैं और फिर उन १०० के खिलाफ... आप समझ रहे हैं ना? बस यही जो कड़ी-दर-कड़ी, ट्वीट-दर-ट्वीट, पोस्ट-दर-पोस्ट, बयान-दर-बयान बुरा मानने का सिलसिला चल रहा है इसे हमें तब तक ख़त्म नहीं होने देना है जब तक हम ना ख़त्म हो लें। वैसे भी आजकल दिन भर का रोना हो गया है कि ज़िन्दगी बेकार हो गई है, नौकरी बेजान सी है, कोई आपको प्यार नहीं करता, आप ४ घंटे ट्रैफिक में बिताते हैं और भी न जाने क्या क्या। इसलिए इसका सबसे बढ़िया उपाय इन सबसे ऊपर उठने की बजाय आहत हो हो कर मर जाना अच्छा है। नहीं? अरे, अरे, आप तो बुरा मान गए। खैर मंशा तो मेरी यही ही थी।

देखिये अब मैं तो कहता हूँ कि आप ये पोस्ट पढ़ कर जबरदस्त ढंग से बुरा मान जाएँ कि इस पोस्ट से तो समाज में नकारात्मकता फैल रही है और इस पोस्ट को पढ़ कर कितनों की ज़िन्दगी तबाह हो जाएगी। और हाँ इस बुरा मानने के सिलसिले में ब्लॉग का लिंक भी फैला दीजियेगा। क्या है ना कि मार्केटिंग का ज़माना है और हमें फ़ोकट की मार्केटिंग बहुत पसंद है ठीक उन्हीं की तरह जो बे सिर-पैर की बयानबाजी से आपको आहत किये जा रहे हैं और आप उनकी फ्री फ़ोकट मार्केटिंग। अरे रे ये तो राज़ की बात खुल गई। वैसे कोई बात नहीं, आप तो हमारे मित्र हैं। मैं बुरा नहीं मानूँगा।

नोट: अभी अभी हमारी दोस्तनी का जवाब आ गया है। कह रही है कि उसने मुझे सोशल मीडिया पे हर जगह ब्लॉक कर दिया है। मुझे तो वैसे भी धेला फर्क नहीं पड़ रहा था। चलिए मगझमारी कम हुई एक :)
आपको होली की शुभकामनाएँ। खूब होली खेलिए-खिलाइए और लोगों को बुरा मनवाइये और ज़ोर से बोलिए, "बुरा तो मानो..."

सोमवार, 19 जनवरी 2015

सफ़र वही, सोच नई

राजेश, यही नाम है उसका। वैसे तो कोई भी नाम ले लीजिये, कहानी कुछ ऐसी ही रहेगी।

राजेश रोज़ मेट्रो में सफ़र करता है। वैसे देखें तो अंग्रेजी वाला suffer भी कहा जा सकता है। और सिर्फ राजेश ही क्यों, सिर्फ नाम बदल दीजिये और उसी की तरह कई और राजेश भी रोज़ मेट्रो में सफ़र करते हैं। कहते हैं कि इस देश में एक तो साधारण श्रेणी (General) का होना और दूसरा लड़का होना बहुत बड़ा गुनाह है। कम से कम पढ़ाई के क्षेत्र में। पर जन-परिवहन में किसी भी श्रेणी का नौजवान लड़का होना सबसे बड़ा गुनाह-ए-तारीफ़ है।

हर किसी दिन की तरह वो भी दिन था। राजेश ऑफिस से लौट रहा था और किस्मत को दाद देनी होगी कि उसे आज बैठने के लिए सीट मिल गई जो कि ना ही महिलाओं के लिए और ना ही विकलांगों और वृद्धों के लिए आरक्षित थी। मन में तसल्ली लिए और कानों में टुन्नी (earphones) घुसाए वो आज इस सफ़र का आनंद उठा रहा था कई दिनों बाद। पास वाली महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर एक नौजवान लड़की बैठी थी, उससे शायद कुछ साल छोटी होगी।

चंद स्टेशन निकले होंगे कि अचानक राजेश के सामने एक वृद्ध महिला आ कर खड़ी हो गई जो कि देखने से गंभीर और अच्छे घर की लग रही थी। कुछ लम्हों के लिए तो किसी ने कुछ नहीं किया पर राजेश को लगा कि अब बगल वाली लड़की उठ कर उन्हें सीट देगी पर यहाँ किस्मत को खुजली हो आई और ये हो न पाया।

इसी बीच वृद्धा की नज़र राजेश पर गड़ गई और उसने झट बोल दिया, "तुम उठ जाओ, मुझे बैठने दो।" अगर और कोई दिन होता तो शायद कोई बात नहीं थी पर आज तो उसके बगल में एक हमउम्र लड़की बैठी थी तो फिर वो ही क्यों उठे? ऐसा उसने सोचा और तपाक से बगल वाली मोहतरमा से कहा, "आप उनको बैठने दीजिये। ये महिलाओं के लिए आरक्षित भी है और आप खड़ी हो कर यात्रा कर सकती हैं।" एक बार को तो जैसे लड़की और वृद्धा, दोनों को सांप सूंघ गया। शायद दोनों ने ऐसी "असामाजिक" जवाब के बारे में सोचा ही नहीं था।

इसके बाद वृद्धा ही उससे बहस करने लगी, "लड़की क्यों उठे, तुम्हें उठना चाहिए।" पर राजेश आज अड़ गया बोला, "अगर लड़का-लड़की को एक समझा जाता है तो मैं ही क्यों उठूँ? केवल मुझे ही इसके लिए मजबूर क्यों किया जाए? क्या मैं दिन भर काम करके नहीं आया हूँ जो नहीं थका होऊँगा? अगर हम आज Gender Equality की बात कर रहे हैं तो फिर आज मैं नहीं उठूँगा, आप इस लड़की से अपनी सीट देने के लिए कहिये"

आसपास वाले यात्री एक बार को तो चौंके पर फिर राजेश की बातों की ओर झुकने लगे। लड़की ने वृद्धा के बिना बोले ही सीट खाली कर दी।

स्टेशन बदल रहे थे पर साथ ही साथ लोगों की सोच भी।