नया क्या?

रविवार, 17 अगस्त 2014

दर दर गंगे (किताब समीक्षा)

कई सालों बाद कोई किताब की समीक्षा कर रहा हूँ अपने ब्लॉग पर। पिछली बार तब, जब प्रेमचंद की पहली उपन्यास पढ़ी थी। अगर इतिहास में गोता लगाना चाहें तो यहाँ लगाइए।

आज बात करेंगे "दर दर गंगे" की। यह किताब मैंने खरीदी नहीं थी पर मुझे भेंट स्वरुप प्राप्त हुई। दरअसल फेसबुक पर गुरुप्रसाद जी ने एक अच्छी सोच के तहत यह प्रस्ताव रखा है कि अगर कोई भी अपनी ओर से किसी किताब की चंद प्रतियां लोगों को भेंट करना चाहे तो ज़रूर करें। इससे लोगों का पठन क्रम भी बंधा रहता है और मेरे जैसे लोग जो नई किताबों की तलाश में रहते हैं, को भी कई विकल्प मिलते हैं। तो इसी सोच के तहत अमित व्रज जी ने भी दर दर गंगे की ३ प्रतियां योग्य लोगों को देने का प्रस्ताव रखा और मैं किताब का नाम पढ़कर ही उत्कंठित हो उठा। जब आजकल गंगा सफाई को ले कर जोरों-शोरों से बातें हो रही हैं तो "दर दर गंगे" जैसे नाम को अपने समक्ष पढ़ना ही मुझे उत्सुक बना गया। मैंने झट अमित व्रज जी के किताब वाली प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया और सयोंगवश जीत भी गया। इसके लिए अमित जी का बहुत आभारी हूँ।

"दर दर गंगे" को दो लोगों ने मिलकर लिखा है और कई लोगों ने इस किताब को लिखने के लिए शोध किया है। अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु इस पुस्तक के लेखक हैं और यह किताब २०१३ में पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित हुई थी।

गंगा की 'दशा, दुर्दशा और नक्शा' को आपके मानसिक पटल और फटी आँखों के सामने यह किताब खोलकर रख देगा। गंगा किनारे बसे कई छोटे-बड़े शहर गाँवों की एक माला को पिरोकर इस किताब को सजाया गया है और बड़ी करीनता से इसकी कहानी बुनी गयी है।

"हर हर गंगे" का हम मानवों की लघु-सहिष्णुता द्वारा उपहास होते हुए और उसको सामने रखते हुए यह किताब, "दर दर गंगे" आपको सोचने पर मजबूर करेगी। कभी आप सोचेंगे "लोग ऐसे भी हो सकते हैं?" तो कभी "लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?" दरसल हम बड़े शहरों में बसे हुए लोगों के साथ यही दिक्कत है कि हम आसमान में रहते हैं और ज़मीन से डरते हैं क्योंकि ज़मीन पर सच आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा होता है और सच के कड़वे गरल को गटकना हम बड़ी इमारतों के छोटे दिल वालों के लिए कठिन है। 'दर दर गंगे' उसी डर को आपके सामने रखने की एक सफल कोशिश है।

३ साल में अलग अलग खण्डों में किये गए इस गंगा सफ़र और खोज को ३० संभागों में इस किताब में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर भारत में बहती माँ के इर्दगिर्द इसके बच्चो-नुमां शहरों और गाँवों को समेटते हुए वहाँ के स्थानीय संस्कृति, विरासत और गंगा से जुड़ी वहां की जिंदगियों को खंगाला गया है।
गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, गंगा नहर, कन्नौज, बिठुर, कानपुर, मनिकपुर, इलाहाबाद, विन्ध्याचल, वाराणसी, गाज़ीपुर, बक्सर, पटना, बख़्तियारपुर, मुंगेर, सुल्तानगंज, भागलपुर, कहलगांव, साहिबगंज, राजमहल, फरक्का, मायापुरी, कोलकाता और गंगासागर नगरों को इस सफ़र का हिस्सा बनाया गया है और हर नगर को गंगाजल में खंगाला गया है।

पढ़ते पढ़ते कभी आप दुखी हो जाएंगे तो कभी हतप्रभ। कभी आपकी आशा बंधेगी तो कभी निराशा। कभी आप सोचने लगेंगे तो कभी विस्मित हो बैठेंगे। यात्राएं रोचक होती हैं और उनका पढ़ना तो वैसे भी रोचक होता है पर जब वो यात्रा आपके इतिहास, संस्कृति और स्वयं से जुड़ी हों तो उस कहानी को आप और लगन से पढ़ते हैं और उसमें खुद को मथते हैं। 'दर दर गंगे' कभी आपको टिहरी बाँध की कहानी से मानव विकास के लिए चुकाया जाने वाला भावों का भुगतान करवाएगा तो कभी ऋषिकेश में पनपते नशेड़ियों और राजनीति से रूबरू मिलवाएगा। कभी आप कन्नौज के खुशबू कारोबार में फैली लोलुपता की गंध को गंगा की नज़रों से देखेंगे तो कभी कानपुर में जुतियों की मार खाते बेबस गंगा के सन्नाटे को सुनेंगे। आखिर कौन सी वो जगह है जहाँ हिन्दू जलाए नहीं गाड़े जाते हैं? आखिर गंगा पर चल रहा करोड़ों का जीवन कैसे खतरे में है? यह सब भी आपकी आँखों के सामने से इसी किताब के जरिये गुज़रेगा। बनारस की गलियों में खोयी गंगा और पटना में विकास की आड़ में छिपी मूक गंगा। भागलपुर में जलजन्तुओं को भी पनाह न दे पाती गंगा और राजमहल में टकराव के बीच बचती गंगा। फरक्का बाँध की बलि चढ़ी गंगा और कोलकाता की जद्दोजहद में बचती गंगा। यह सब आप 'दर दर गंगे' में जान सकेंगे।

वैसे तो पूरे सफ़र में कई उतार चढ़ाव हैं। हर जगह आपको अच्छे और बुरे लोग मिलते जाएंगे पर चूँकि सालों की लोलुपता, स्वार्थ और अनदेखी ने हमसे भी पुरानी इस नदी का जो भेदन किया है, उसे भरना इतना आसान नहीं होगा। हर जगह की अपनी मुश्किलें हैं और कई लोग अपनी अपनी जगहों से इसके लिए लगातार, निश्छल प्रयास भी कर रहे हैं। इनके बारे में भी पढ़कर आपको सुकून मिलेगा और प्रोत्साहन भी। कई परम्पराओं को जानकार आपको आश्चर्य होगा और आपके कौतुहल को और बल मिलेगा। ३ साल के अथक प्रयास से अभय और पंकज ने आपको अपनी माँ को जानने का २२१ पन्नों का तोहफा दिया है। इस तोहफे को ज़रूर अपनाइए और धीरे धीरे अपने ज्ञान, सोच और जीवन को और विस्तृत बनाइये। सच से सामना होना ज़रूरी है क्योंकि अगर आज हमारी आँखें नहीं खुली तो जल्द ही गंगा की आँखों के आगे अँधेरा छा जाएगा। चयन आपका।

जाते जाते बस एक बात और कहना चाहूँगा: गंगा के लिए शायद आप कोई विस्तृत काम न कर सकें पर एक छोटा सा कदम आज ज़रूर लें। प्लास्टिक की थैलियों का कम से कम इस्तेमाल करें। ये भी आधी-तिरछी हों गंगा में ही पहुँचती हैं। बाजार जाएं तो थैला ले कर जाएं। एक छोटा कदम, एक बड़ा बदलाव।

'दर दर गंगे' खरीदें: फ्लिप्कार्ट, अमेज़न, होमशॉप१८ से।

नोट: जल्दी ही "नीला स्कार्फ", "मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" की भी समीक्षा करूँगा। पढ़ते रहिये!