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गुरुवार, 24 जुलाई 2014

सस्ती जान

राकेश और मोहित, पक्के दोस्त. स्कूल में ११वीं में एक साथ थे. वैसे तो दोनों मध्यमवर्गीय परिवार से थे पर युवावस्था में आ कर सभी शौकीन हो जाते हैं क्योंकि ये समय ही होता है बेपरवाह उड़ने का.

दोनों को चौपाटी में जा कर खाने का बड़ा शौक था. शहर के एक व्यस्त बाजार में सड़क किनारे खाने का वो आनंद किसे नहीं होगा? पर चूँकि यह जगह उनके घर से दूर था, तो कभी-कभार बस पकड़ के पहुँच जाते था. चंद महीनों पहले मोहित के पापा ने घर के लिए स्कूटी खरीद ली थी और मोहित के लिए 'लर्नर्स लाइसेंस' भी बनवा दिया था. गाहे-बगाहे दोनों इसी स्कूटी पर मस्ती मारने निकल पड़ते पर घर से यह सख्त हिदायत थी कि दोनों को हेलमेट पहनना पड़ेगा. शहर में भी यही नियम था.

घर से निकलते वक़्त तो दोनों हेलमेट पहने हुए निकलते पर अगले ही नुक्कड़ पर पीछे बैठा यात्री अपना हेलमेट अपने हाथों में टांग लेता. फिर तो बस उन चौराहों पर जहाँ पुलिस खड़ी होती, वहीँ पर हेलमेट सिर पर सजता था नहीं तो हाथ पर. कई महीनों तक ऐसा चलता रहा और अब तो यह आदत सी बन चुकी थी. वैसे भी हिंदुस्तान में जान जाने से ज़्यादा चालान कटने का डर लगता है.

बस काल को इसी एक दिन का इंतज़ार था. दोनों चौपाटी की ओर बढ़ चले थे और पुलिस चौराहा पार करते ही पीछे बैठे राकेश ने अपना हेलमेट सिर से उतारकर हाथों में टिका लिया था. सड़क के अगले कोने पर ही एक बदहवास कुत्ता न जाने कहाँ से उनके सामने आ गया और तीव्र गति में चल रही स्कूटी को मोहित संभाल न सका और कुत्ते से बचने के चक्कर में पास ही में चल रहे डिवाइडर पर स्कूटी दे मारी.

इसके बाद दोनों हवा में उछल के सड़क के उस पार और फिर मोहित को कुछ याद नहीं. शायद कई दिन बीत गए थे और आज जा कर अस्पताल में उसकी आँखें खुली. कमरे में इस वक़्त कोई नहीं था. बस एक अखबार पड़ा था जिसमें एक फोटो थी एक नौजवान की. वह गिरा पड़ा था सड़क पर और उसके हाथों में एक हेलमेट अटका हुआ था. उसके सिर से खून का तालाब सड़क पर बन चुका था. नीचे लिखा था:

"जान सिर में होती है, हाथों में नहीं" -ट्रैफिक पुलिस

साभार: गूगल