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शुक्रवार, 10 मई 2013

ब्लॉगिंग के ५ साल

१६ अप्रैल २००८ को मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ब्लॉग किया. आज उस लेख को ५ साल से ऊपर हो गए हैं. और ख़ुशी की बात यह है कि यह किसी पंचवर्षीय योजना के तहत ब्लॉगिंग की प्रथा नहीं रही है और फिर भी सफल रही है. हमारी सरकारों की तरह नहीं जो पंचवर्षीय योजनाएं बनाती तो तो हैं पर अंततः वह सब "पंचतत्व में विलीन योजनाएं" ही रह जाती हैं.

जब मेरे ब्लॉगिंग को तीन साल हुए थे तो मैंने तब तक की की हुई ब्लॉगिंग पर एक विस्तृत समीक्षा की थी और इसलिए मैं वह वापस नहीं करना चाहता. ५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर मैं केवल अपने ब्लॉगिंग के सफ़र में आये उतार-चढ़ाव के बारे में लोगों को बताना चाहता हूँ जिससे और नए लोग जुड़ें और शिथिल पड़े ब्लॉग्स फिर से हलचल मचाएं.


बात स्कूल के समय कि है जब हिन्दी का स्तर बहुत नीचे गिर रहा था और बंगाल में तो इसका स्तर और भी नीचे है जहाँ लोग ठीक से हिन्दी बोल भी नहीं पाते हैं (हाँ जी, वहाँ लड़की भी बोलती है "मम्मी हम स्कूल जा रहा है" जिसपर मम्मी उत्तर देती है "ठीक है, शाम को हम तुम्हारे साथ मार्केट चलेगा, जल्दी आ जाना").
मुझे याद है कि हमारे हिन्दी के अध्यापक बड़े ही कड़े मिजाज़ के हुआ करते थे और उनके पेपर में ५०-६० नंबर आना बड़े गर्व की बात होती थी. उस समय मैं घर पर हिन्दी अपनी माँ से पढ़ा करता था और कक्षा ९ में एक एग्जाम के जब पेपर बंट रहे थे तो एक पेपर पर आ कर सर अटक गए और बोले - "ये लड़का कौन है? इसका पेपर चेक करके बहुत मज़ा आया. केवल एक मात्रा की गलती है दोनों पपेरों को मिला कर." फिर मैं पेपर लेने गया तो पूरी क्लास नी ताली मार दी. हम तो अति प्रसन्न हुए और घर जा कर बताया तो घर पर भी वाह-वाही. उसके बाद से तो जब भी हिन्दी सर मिलते तो उतने खडूस से ना लगते. अब ये तो होना ही था :)

फिर कई साल बीत गए और मेरा हिन्दी से नाता टूट सा ही गया. पढाई में इस कदर घुसे कि फार्मूला, स्ट्रक्चर और मोशन के अलावा मुझे न तो कुछ सुनाई देता और न कुछ दिखाई. पर वक़्त अपनी चाल अपनी चाल से ही चलता है और कॉलेज में आने के एक साल बाद मुझे लगा कि हिन्दी की डोर फिर से संभाली जाए. तो हम जुड़ गए कॉलेज के हिन्दी प्रेस क्लब के साथ. क्लब का काम कैंपस पे हो रही हलचल को लोगों तक न्यूज़लैटर के माध्यम से पहुँचाना था और हम भी लग गए इस काम में.

उस समय अंतरजाल भारत में अपने उत्थान पर था और हम भी उसकी गिरफ्त में आ रहे थे और तभी ब्लॉग-ब्लॉग का हल्ला सुना. कैंपस पे कई लोग ब्लॉग करते थे पर सब अंग्रेजी में. ऐसा नहीं था कि अंग्रेजी में हमारी रूचि नहीं थी पर हमें यही शिक्षा मिली थी कि जो अपनी मातृभाषा का आदर करता है, वह और सभी भाषा का उतना ही आदर कर सकता है पर इसका विपरीत नहीं होता. इस सीख को मैं आज भी उतना ही सच मानता हूँ और मेरा तो यह भी मानना है कि अगर आपकी मातृभाषा सदृढ़ है तो किसी और भाषा को सीखना बहुत आसान हो जाता है. लेकिन भारत के बदलते पहलुओं से मैं लोगों की खिचड़ी भाषा सुनकर काफी दुखी हूँ. वह ना तो इस छोर के रहे हैं और ना ही उस छोर के. ढिंढोर बहुत पीटते हैं मगर.

फिर एक रात मैंने ब्लॉग बनाया. यूँ ही कुछ लिखना था तो कुछ लिख दिया. कोई खबर न थी कि कौन पढ़ेगा, कौन टिपियाएगा. पर अगले दिन जब उठा तो देखा कि २-३ टिप्पणी मेरा स्वागत कर रही है और मैं बहुत खुश हुआ. सच कहूँ तो शुरू की २-३ सीढ़ियों को चढ़ने में जो लोग मदद करते हैं, वही सफलता के असली हक़दार होते हैं. आज अगर उस पोस्ट पे कोई टिप्पणी नहीं आती तो शायद मैं इस मुकाम पर कभी नहीं पहुँच पाता. फिर यह सिलसिला कायम रहा और उसी साल मैंने अपने क्लब के लिए भी एक ब्लॉग तैयार कर दिया जिससे हम तकनीक के माध्यम से कैंपस के बाहर भी अपनी पहुँच बढ़ा सकते थे. इसके अलावा मैं गानों का बहुत शौक़ीन हूँ और इसलिए मुझे गानों के बोल चाहिए होते थे पर वो सब अंग्रेजी में ही होते थे. कुछ इक्के-दुक्के साइट्स ही थे जो हिन्दी में बोल मुहैय्या करवाते थे. इसलिए मैंने अपना ही ब्लॉग "लफ़्ज़ों का खेल" शुरू कर दिया और कुछ ही महीनों में उसे भी ५ साल हो जाएँगे जिसपर करीब ९०० गाने हैं और ६.३ लाख से भी ज्यादा हिट्स आ चुके हैं.

ब्लॉगिंग चलता रहा है और लोगों के सुझावों और प्रोत्साहन से मैं लिखता रहा जिसे कई लोगों ने पसंद भी किया. मेरा उसूल सिर्फ एक था और एक है "ऐसा लिखो जो लोगों के बीच से उठी हो और लोगों के लिए हो". मेरा मकसद सुसज्जित और विभूषक हिन्दी लिखना नहीं है. मेरा मकसद हिन्दी के उस पतन को रोकना और फिर उसे उत्थान की ओर ले जाना ही रहा है. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूँ और आम भाषा में लिखता हूँ ताकि जो लोग इस भाषा से दूरी बना चुके हैं वह फिर से इसको अपनाएं क्योंकि जो देश अपने भाषा की कदर नहीं कर सकता, वह देश सिर्फ विनाश की ओर ही मुंह करे खड़ा है. आदर नहीं तो कम से कम निरादर तो ना करें! कई युवाओं को जब गर्व के साथ बोलते हुए देखता हूँ कि मुझसे तो हिन्दी पढ़ी-लिखी नहीं जाती तो मुझे वही अनुभव होता है जब उनके सामने कोई कहे कि "मुझे तो अंग्रेजी पढनी-लिखनी नहीं आती"

खैर, ३ ब्लॉग संभालते संभालते अब यह एहसास हो चुका है कि ब्लॉगिंग आसान नहीं है. कुछ समय आप अपनी ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि लेखन के प्रेरणा स्रोत ही गायब हो जाते हैं. अगर समय भी हो तो आप कुछ ऐसा लिख ही नहीं पाते जो रुचिकर हो. और कभी इसके ठीक विपरीत होता है. आपके पास सोच का भंडारा भरा पड़ा होता है पर उसे खाली करने का समय नहीं!

मेरे ख्याल से मेरे साथ कैंपस पे जितने भी लोगों ने ब्लॉगिंग शुरू की थी, आज सब ठप्प पड़े हैं.
कारण है - काफी अनियमित ब्लॉगिंग और लेखों की गुणवत्ता में कमी.
अगर आपका ब्लॉग है जिसका आप पुनर्जन्म चाहते हैं या फिर आप ब्लॉगिंग शुरू करना चाहते हैं तो यह दो सबसे अहम् पहलू हैं. अच्छा लिखिए, अच्छा पढ़िए और निरंतर लिखिए. मैंने खुद के लिए एक नियम यह बना लिया है कि हर महीने एक लेख तो लिखूंगा ही. इसलिए नज़रें और कान हमेशा खुली रहती हैं कि किस विषय पर लिखा जाए. पर कुछ नियमबद्ध काम करने से फायदा बहुत होता है. बड़े बड़े गुणवान सिर्फ इसीलिए मात खा जाते हैं क्योंकि चीज़ों को लेकर उनमें सहनशक्ति नहीं होती. वह बड़े जल्दी निराश हो जाते है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि जो पोस्ट मुझे बहुत पसंद आई हो, उसको काफी कम लोगों ने पढ़ा है और काफी कम टिप्पणियाँ आई हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि अगला पोस्ट नहीं आया हो. अगर ऐसी दुविधा में पड़ जाएं तो यही सोचें कि मैं अपने लिए ही लिख रहा हूँ, मैं अपने विचारों को लेखन की दिशा दे रहा हूँ, बस!

एक और बात जो मैं साझा करना चाहूँगा, वो ये कि नए प्रयोग करने से घबराएं नहीं. मैंने करीब करीब हर रस पर लिखा है जिनमें से कई बहुत ही सामान्य हैं पर नए अभ्यास करके चित को बड़ी शान्ति मिलती है. बीच में लघु कथाएं भी लिखनी शुरू कि जो काफी सफल भी रहे और आगे भी मैं उनपर लिखता रहूँगा.

पहले मैं समझता था कि टिप्पणी करना भी बहुत ज़रूरी है जिससे लोग भी आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करें. पहले समय और भाव दोनों थे तो मैं भी काफी ब्लॉग्स पढता था और टिप्पणी भी करता था. पिछले कुछ महीनों में यह कम हुआ है जिससे मैं खुद परेशान हूँ. पर मैं यह नहीं मानता कि टिप्पणी करना अनिवार्य ही है. अगर आप अच्छा लिखेंगे तो लोग खुद खोजकर आपके ब्लॉग को पढेंगे. अच्छी लेखनी और टिप्पणी का कोई सम्बन्ध नहीं है. इसलिए टिप्पणीमुक्त हो कर लिखें!

अब बात रही ब्लॉगिंग के जीवन में फायदे कि तो मैं ब्लॉगिंग के माध्यम से कई विरष्ठ लोगों से मिला हूँ और ब्लॉग के माध्यम से ही मेरी कवितायेँ "अनुगूंज" (संपादक: श्रीमती रश्मि प्रभा) में भी छपी. इसके अलावा कई बार जनसत्ता में मेरे आलेख छपे (संतोष त्रिवेदी जी :)). पर इन सब चीज़ों के लिए मैंने कोई कोशिश नहीं की. बस अपनी धुन में लिखता गया और लोगों को पसंद आया तो उन्होंने खुद पूछ लिया छपवाने के लिए.

ब्लॉगिंग का यह ५ साल का सफ़र काफी खुशनुमा रहा है और उम्मीद यही है कि लिखता रहूँ, मिलता रहूँ, पढता रहूँ, जब तक है जान, जब तक है जान :)