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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

कैसे कैसे गीत (भ्रष्ट गीत)


गीत तो हम सब गाते हैं। कुछ स्नानागार में, कुछ सभागार में, कुछ कारागार में, कुछ आगार (बस डिपो) में और भी न जाने कहाँ-कहाँ। गाना सबको आता है, यह तो कुदरती है। पर जनाब किसी को बोलिए कि दो पंक्ति सुना दे और वो नये नवेले दुल्हे की तरह शरमा जाता है (दूल्हा इसलिए बोला है क्योंकि आजकल लैंगिकवादी का इलज़ाम CBI की क्लीन चिट्स की तरह लोगों को बांटा जा रहा है)। पर कुछ लोग तो ऐसे ढीठ हैं कि सार्वजनिक जगहों पर भी गला फाड़ देते हैं। दरअसल कानों में टुनटुना ठूसने के बाद किसी बात का ध्यान नहीं रहता। दिल्ली मेट्रो में तो ऐसे लोग भरसक प्राप्त होते हैं। "कृपया मेट्रो में संगीत ना बजाएं और सहयात्रियों को परेशान ना करें" घोषणा होने के बावजूद लोग टुनटुने से उद्घोषक को ठेंगा दिखा देते हैं और अपनी आवाज़ से सहयात्रियों को। पूरे सफर में किरकिरी तो तब होती है जब जनाब/जनाबिन के टुनटुने से महा-वाहियात, महा-बेसुरा, महा-बेसिरपैरा गाना लीक हो रहा होता है। उससे बचने का एक ही उपाय है कि आप भी एक टुनटुना ठूस लें। जैसे लोहा, लोहे को काटता है वैसे ही टुनटुना, टुनटुने को!

खैर हम बात कर रहे थे गीत गाने की।
कुछ तो बचपन से देवदास बनने का बोझ उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वो दारु की बोतल लिए चुन्नी और चंद्रमुखी के साथ यात्रा पर निकलते हैं पर उनके गीत बड़े ही निराशाजनक और अपच पैदा करने वाले होते हैं। वो दिनभर ऐसे ही गीत सुनते हैं और सामूहिक संचार माध्यम (सोशल मीडिया) से लोगों को भी प्रताड़ित करते हैं। कभी-कभार ऐसे गीत सुन लो तो दुःख हल्का होता है पर हर रोज ऐसे गीत? देवदास ही बचाए!

दूसरी ओर कुछ महानुभाव(विन) ऐसे होते हैं जो केवल ढिनचैक गाने सुनते हैं। जहाँ जाएँगे, घोर मस्ती गीत शुरू कर देते हैंदेखने में आया है कि ये 'यो यो' के फैन क्लब पेज भी चलाते हैं। इनको शब्द या अर्थ से कोई लेना देना नहीं होता। पर ये आपको किसी टिप्पणी पर लैंगिकवादी बताने में पीछे नहीं रहेंगे। तो सावधान रहें। इनके साथ नाचिये और अपनी राह तकिये।

तीसरी श्रोता श्रेणी उन लोगों की है जो केवल गहन अर्थ वाले गाने ही सुनते हैं। ये प्रवाचक होते हैं और 'यो यो' के 'अ-फैन' क्लब पेज चलाते हैं। अगर गीतकार ने लिखा होता है कि "आसमान नीला है" तो ये इस पंक्ति की गहरी खुदाई करते हैं, फ़िर उसमें कूद पड़ते हैं और आसमान फाड़कर सोना निकालकर पेश होते हैं। ऐसे लोग साहित्य के अच्छे अध्यापक बनते हैं और बच्चों की कमर तोड़ते हैं।

चौथा श्रेणी है नेताओं का। ये केवल एक ही तरह के गीत सुनते और गाते हैं। "भ्रष्ट गीत"! ऊपर मौजूद सभी तरह के श्रोताओं को ये सालों से अकेले ही धोते आते रहे हैं। यही इनका राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत है। ये स्नानागार, सभागार, कारागार, इत्यादि, लगभग हर जगह भ्रष्ट गीत ही गाते हैं। हमारे ख़ुफ़िया पेटी वादक ने इनके एक भ्रष्ट गीत को खोद निकाला है और आपके समक्ष पेश कर रहा है। आप भी सुनिए और बताइए कब बंद होंगे ऐसे भ्रष्ट गीत?



इसी गीत का एक वीडियो भी मैंने तैयार लिया है. देखिये और मस्त हो जाइए!

वैसे
कैसा भी गीत हो, अगर कर्णप्रिय है तो सब ठीक है। सबकी अपनी-अपनी पसंद है। कोई ग़मगीन, कोई मस्तीलीन, तो कोई अर्थलीन है। जो जैसा है वैसा रहे। हम-आप बस मस्ती करते रहें सबके साथ।

पर हाँ, ये भ्रष्टलीन श्रोताओं की आवाज़ अब बंद करनी होगी। नया साल आ रहा है। तो झाड़ू लगाइए, पोंछा लगाइए, वैक्यूम क्लीनर इस्तेमाल करिये, पर सफाई पूरी हो अबकी। 
नये साल की शुभकामनाओं के साथ राम-राम, आदाब, सायोनारा, जय भारत!

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मेरा वोट, मेरा देश

वैसे तो ४ राज्यों में चुनाव हो गए हैं पर अभी लोक सभा चुनाव जैसा शेर आने को तैयार हो रहा है तो यह कृति तब के लिए भी उतना अर्थ रखेगी।
यह कविता एक प्रतियोगिता के तहत लिखी थी पर उसका परिणाम आया नहीं है सो अब ब्लॉग पर डाल रहा हूँ। आशा है कि आप भी एक जागरूक भारतीय कि तरह अपने हक यानी "वोट" का इस्तेमाल ज़रूर करेंगे।
माना कि हम में से कईयों के १-२ दिन की छुट्टी ले कर अपने अपने इलाके में जा कर वोट करना होगा पर देश के लिए ५ साल में १-२ दिन निकालना हमारा फ़र्ज़ है।
और ज्यादा नहीं कहूँगा, आप कविता पढ़ सकते हैं और स्व-संगीतबद्ध सुन भी सकते हैं
बताइयेगा कैसा लगा।




"दसवीं पास है लड़का"
सुनकर, नाक-भौं सिकोड़ते हो
"इंजीनियर है लड़का" सुनकर, पूरे तुम अकड़ते हो
पर
"अंगूठा छाप है नेता" सुनकर
क्यों आती नहीं चेहरे पर सिकुड़न?
पांचवी फेल नेता को चुनकर
भी क्यों है ये तुममें अकड़न?
जो पढ़ नहीं सकता "क ख ग़ घ"
क्या गढ़ पाएगा वह इतिहास?
चुनो पढ़े-लिखे सच्चों को
तभी होगा देश का विकास!

"वो है बलात्कारी" सुनकर, थूकते नहीं तुम थकते हो
"वो है व्यभिचारी" सुनकर, बंद दरवाज़े करते हो
पर
बलात्कार करता नेता तो
थूक को क्यों पी लेते हो?
अनाचारी नेता को घर में
क्यों तुम घुसने देते हो?
दामिनियों की लूटता इज्ज़त
क्या कर पाएगा उनकी रक्षा?
चुनो सदाचारी नेता को
तभी मिलेगी हमें सुरक्षा!


"एक गुंडा पकड़ा चौराहा पर", सुनके हाथ गरमते हो
"एक चोर पकड़ा पब्लिक में", तब तो खूब गरजते हो
पर
जब जीते चुनाव एक गुंडा
तब तुम क्यों नरमते हो?
जब चोर बनता है साहूकार
तब क्यों नहीं तुम गरजते हो?
जो लूटता है अपने लोगों को
क्या जुट पाएगा देश के लिए?
चुनो साफ छवि नेता को
बदलने परिवेश के लिए!


चंद पैसे खरीदे इज्ज़त तुम्हारी, तब बातें बड़ी तुम करते हो
चंद सिक्के तोले ज़मीर तुम्हारी, तब ज्ञानी बड़े तुम बनते हो
पर
जब बिकता है परिवार वोटों में
तब बातों से क्यों छुपते हो?
जब नेता करता लोभ पर शासन
तब ज्ञान कुँए में ढकेलते हो?
खरीदता है वोट जो नेता
क्या देश को न बेच आएगा?
चुनो सशक्त, अभिमानी नेता
भ्रष्टाचार मिट्टी में मिलाएगा!


चुनो उसे जो भ्रष्ट दिलों में
कहर बन कर छाएगा
चुनो उसे जो तुममें, मुझेमें
सुरक्षा भाव फैलाएगा
चुनो उसे जो कल के युग में
शिक्षा समृद्धि लाएगा
चुने उसे जो गरीबों को भी
स्वाभिमानी बनाएगा
चुनो उसे जो लोगों की खातिर
तन-मन अपना लुटाएगा
चुनो उसे जो देश की खातिर
जीवन अपना बिताएगा!

रविवार, 3 नवंबर 2013

इस दिवाली तो बस..

इस दिवाली एक छोटी सी कृति उन तमाम लोगों के लिए, उन तमाम लोगों की तरफ से, जो यह दिवाली मेरी ही तरह अपने घर से दूर रहेंगे। मेरा तो यह मानना है कि आज के इस भगदड़ ज़िन्दगी में जब भी आप अपने घर-परिवार-दोस्तों के साथ होते हैं, तभी दीवाली-होली-ईद-रमज़ान मनती है।
पर जनाब यादों का सैलाब तो हर किसी को बहा ले जाता है फिर आप सब भी अपने अपने सैलाबों में बहते रहिये। जहाँ भी हों, खूब हर्षोल्लास से दीवाली मनाएँ! हार्दिक शुभकामनाएं!

याद है मुझे वो दिवाली से पहले की हलचल
जब पूरा घर इधर का उधर हुआ रहता था
कोई झाड़ू, तो कोई हथोड़ा लिए लगा हुआ था
जब चाय की चुस्कियों का होता था अल्पविराम
और कमर टूटने के बाद का आराम
अब
अगले दफे आऊंगा घर दिवाली पर
तब दोहराएँगे यही काम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो शेरवानी जो पहनी थी पिछली दिवाली पर
दुरुस्त जो लगना था हमें इश की चौखट पर
क्या खूब सजाया था वो पूजन-मन
गाये थे हमने मन्त्र, आरती, भजन
इस दिवाली तो पजामे में ही बीतेगी शाम
अब
अगले दफे आऊंगा घर दिवाली पर
तब गाएंगे झूमेंगे हम सब तमाम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो खुशबू बेसन के सिकने की
कभी-कभी हम भी दो-चार हाथ चला दिया करते थे
और वो दाल के हलवे का स्वाद मुँह में आज भी जमा है
जिसे खूब जम के हम सब खाया करते थे
इस दिवाली तो बाजारू मिठाइयों से ही चलेगा काम
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब डट के लुटाएंगे पकवानों पर जान
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो बारूद की सुगंध आज भी
जब घंटों बजाते थे पटाखे चौक पर
कभी डर-डर के, कभी सर्र सर्र से
लगाते थे फुलझड़ी उस सुई सी नोक पर
इस दिवाली तो बस दर्शन का होगा काम
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब लगाएंगे चिंगारी बेलगाम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो अगले दिन का मेल मिलाप
जब शहर का चक्कर लगाते थे दिन रात
कभी इस डगर, कभी उस के घर
हँसी ठहाके, सौ सौ बात
इस दिवाली तो खुद से मिलाएंगे तान
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब गप्पों की खुलेगी खान
इस दिवाली तो बस "राम राम"
इस दिवाली तो बस "राम राम"

सोमवार, 30 सितंबर 2013

एक शहर देखा है मैंने - "दिल्ली"

सभी को बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि कुछ दिनों पहले एक 12 मिनट की फिल्म "दिल्ली" में संगीत देने का अवसर प्राप्त हुआ. आप में से कईयों को यह तो पता होगा कि मैं गाने का बहुत शौक़ीन हूँ (आपने मेरे गाने यहाँ सुने होंगे) और गाने के साथ-साथ मैं हारमोनियम/कीबोर्ड भी बजाता हूँ.
कॉलेज में कई गीत बनाए और गाए भी. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस फिल्म में भी संगीत दिया और पार्श्व में चल रहे कविता को भी मैंने ही लिखा है.

यह फिल्म दिल्ली के दूसरे पहलू को दर्शाने की कोशिश कर रहा है. एक पहलू तो वह जिसने दिल्ली को पिछले कुछ सालों में बहुत ही नकारात्मक दृष्टि प्रदान की है. इस फिल्म के ज़रिये हम दिल्ली में बदलाव की बात कर रहे हैं. बदलाव जो सड़कों पर उतरने से नहीं आता वरन खुद के भीतर से ही आता है. आम लोगों के सड़कों पर उतरने से आम आदमी ही परेशान होता है. आज तक इतने प्रदर्शनों से ना ही भ्रष्टाचार रुका और ना ही लड़कियों पर हो रहा अत्याचार.

इस फिल्म के जरिये यह गुहार लगायी गयी है कि बदलाव खुद से दूसरों तक फैलाओ और अपने घर को पहले स्वच्छ करो.

आशा है कि आपको यह प्रयास अच्छा लगेगा. विडियो देखें और अपनी राय ज़रूर दें.



पूरी कविता:
एक शहर देखा है मैंने
जहाँ सहर-ए-आफताब* से फिज़ा ज़र्द होती है (*सुबह की धूप)
जहाँ चाय के धुंए में फिक्रें सर्द होती हैं
जहाँ हर गली अपनी ही कहानी बिखेरता है
जहाँ हर इंसान अपनी किस्मत टटोलता है

एक शहर
जो गम और खुशी का मेल है
जो सही और गलत का खेल है
जो हर सोच को पनाह देता है
जो हर नज़र को निगाह देता है
जो हर मोड़ पे बदलता है
जो हर मौसम में मचलता है
जो कई मुकामों पे बहकता है
पर एक दूसरे से संभलता है
जो दर है हर मज़हब का
जो घर है शान-ओ-अज़मत* का (*शान और महानता)
जो यहाँ के लोगों की पहचान है
जो गैरों को मेहमान है

एक शहर
जो निशाना है जुर्म का
जिसको भय है खौफ का
पर
ये खेल है सिर्फ एक सोच का
एक सोच का जो इंसान को इंसान बनाती है
एक सोच का जो बदलाव लाती है
एक सोच जो साथ चलना सिखाती है
एक सोच जो निर्भय आवाज़ उठाती है
एक सोच जो खुद में विश्वास जगाती है
एक सोच जो शहर को घर बनाती है

एक शहर
जिसका आप बदल सकते हैं
अपनी सोच से, एक नयी सोच से
अब बदलाव दूर नहीं
अब दिल्ली दूर नहीं!

रविवार, 15 सितंबर 2013

थूकन कला

"थूकना", यह एक ऐसा शब्द है, एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे हर भारतीय बहुत ही परिचित और बहुत ही अनजान है। परिचित इसलिए क्योंकि वो इस क्रिया को दिन में कई बार करता है और अनजान क्योंकि वह यह प्रक्रिया अनायास ही करता रहता है। जिस कुशलता से हम सांस लेते हैं, उसी दक्षता से हम थूकते भी हैं। यह तो हम भारतीयों की कला ही मानिए कि ऐसे कार्य को भी बेझिझक कर जाते हैं और उससे भी ज्यादा अचंभित करने वाली बात यह है कि जो दर्शक-दीर्घा वाले लोग हैं, उन्हें भी इस बात का ज्ञान नहीं होता कि सामने वाला आदमी यह कर गया। हम इस थूकन प्रक्रिया के इतने आदि हो चुके हैं कि अब यह हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन चुका है।

बचपन से ही हम अपने आस
पास लोगों को यह अनोखी कला के धनी बने पाते हैं। कोई दीवार पे थूक रहा है, कोई सड़क के किनारे, कोई सड़क के बीच तो कोई चलती बस में से राहगीर पर। 

चित्र: गूगल बाबा की देन है

जनाब भारत में तो ऐसे कई गली कूचे हैं कि अगर कोई इंसान किसी अनजान गली से गुजार रहा है तो उसके ऊपर टपाक से "गीली तीर" लगती है और इससे पहले कि वो समझ सके कि यह किस घर से आया, वो उन तंग गलियों की चहचाहट और घरों की बनावट से ही डर के तेज़ी से निकल जाता है। पर वहाँ के रहने वाले बाशिंदों को यह कला की पूरी पहचान है और वो बड़ी चतुराई से इन तीरों से बच निकलते हैं, हर बार!

तो
हम बचपन से ही इस कला को आम मानते हैं और कई बार तो दोस्तों के बीच यह शर्त और लग जाती है कि कौन कितनी दूर थूक सकता है। और जब हम ज्यादा दूर नहीं पहुँच पाते हैं तो निराश हो जाते हैं कि यह अद्भुत कला हम न सीख पाए। पर अगर बड़े हो कर विदेशों में यह कला प्रदर्शन करते हैं तो जुर्माना देते हुए पाए जाते हैं (और सोचते हैं कि यहाँ तो इस कला की कोई कद्र ही नहीं!)

मेरा
तो यह मानना है कि थूकन कला की प्रतियोगिताएं आयोजित होनी चाहिए क्योंकि हमारे देश में एक से एक धुरंधर इस कला में महारत हासिल कर के बैठे हैं। अपने दूकान के गल्ले पर बैठे-बैठे यों थूकते हैं कि सीधा दूसरी तरफ बह रहे नाले में छपाक! राह चलते लोग हैरत और इज्ज़त से सलाम ठोक कर जाते हैं। जनाब, अगर इस कला को भुनाना है तो इसकी प्रतियोगिताएँ स्कूल, कॉलेज, जिला, शहर, राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक करवाए जाएँ और फ़िर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करने के लिए पाकिस्तान, बंगलादेश, इत्यादि जैसे देश तो हैं ही जहाँ यह कला लोग इसी देश से सीख कर गए हैं। मैं तो कहता हूँ कि धीरे-धीरे सही मार्केटिंग द्वारा इसको और देशों में फैलाया जाये और फ़िर देखिये भारत का बोल बाला। अकेले इस खेल में ही इतने पदक जीत जाएँगे कि चीनी और अमरीकी दाँतों तले थूक निगल लेंगे!


"
ज्यादा दूर तक थूकना", "थूक कर निशाना लगाना", "
सीमित समय में सबसे ज्यादा और सबसे दूर थूक पाना" जैसे विविधता के साथ इसकी शुरुआत की जा सकती है। बाकी तो आजकल सब मार्केटिंग का खेल है। सही से किया जाये तो कचरा भी सोने के भाव बिक ही रहा है।

मेरे
खयाल में थूकना भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है तभी तो इतने मुहावरे भी थूकने पर भारत में बहुत प्रचिलित हुए हैं जैसे:

1.) थूक कर चाटना (कितने ही भारतीय नेता इस मुहावरे को चरितार्थ करते हैं। पहले अपने बेहूदे बयान थूकते हैं और फ़िर बड़ी बेशर्मी और सफाई से चाट भी जाते हैं)

2.) मुँह पर थूकना (अब इस श्रेणी में तो हर रोज कई लोग आते हैं। बेईज्ज़ती करने में तो कईयों को इतना मज़ा आता है कि फ़िर वो यही कहते पाए जाते हैं कि "फलां के मुँह पर थूक आया", "फलां के मुँह पर ऐसा थूका कि रोने लगा", इत्यादि। और फ़िर कई लोग तो ऐसे हैं जो इस मुहावरे को कुछ ज्यादा ही गंभीर मान लेते हैं और वाकई में थूक आते हैं किसी के मुँह पर!)

3.) थू-थू होना (यह श्रेणी भी कई नेताओं के लिए बहुत सटीक बैठती है। जहाँ जाते हैं, थू थू करवा आते हैं। और आजकल तो सोशल मीडिया पर भी यह करना बहुत आसान हो गया है। एक बयान दो और हज़ारों की थू-थू मुफ्त पाओ!)

ऐसे ही और कई मुहावरे हैं जिनका विश्लेषण हम भारतीयों पर सौ दम फिट बैठता है।

और
फ़िर जहाँ लोग गुटखा तम्बाकू में लिप्त हैं वहाँ थूकना न हो तो कहाँ हो? थूक थूक कर रंगीन दीवार बनाने की कला तो कोई हमसे ही सीखे। और यह तो खासकर सरकारी दफ्तरों की सीढ़ियों में बेहद आसानी से पाए जाने वाली कलाकृतियों में से है।
चित्र: गूगल बाबा की देन है

और आजकल जिस तरह के "मॉडर्न आर्ट्स" चल/बिक रहे हैं, अगर कुछ थुक्कड़ को एक चार्ट पर थूक कर अपनी कला उजागर करने को कहा जाए तो करोड़ों में वो पेंटिंग "मॉडर्न आर्ट्" के नाम पर विदेशों में बिकेगी। मैं तो कहता हूँ कि कई निठल्ले रातों-रात अमीर हो जाएँगे और देश का नाम रौशन करेंगे!

अंत
में तो यही कहना चाहूँगा कि भगवान का दिया इस देश में सब कुछ है। बस ज़रूरत है एक पारखी की, उसको पहचानने की। फ़िर देखिये कि यह "थूकन कला" भारत को कहाँ का कहाँ ले जाती है!

इसी आशा के साथ कि अब हम सब मिलकर इस "वाट एन आईडिया सर जी!" पर चिंतन और कार्य शुरू करेंगे
, तब तक "ताकते रहिये, रुकते रहिये, थूकते रहिये, चूकते रहिये और जो ना चुके, तो लुकते रहिये!"

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

मुझसे होगी शुरुआत!

यह गीत एक प्रतियोगिता के लिए लिखा और संगीतबद्ध किया था. इस स्वतंत्रता दिवस पर सबको उम्मीद है एक बदलाव की और वो बदलाव की शुरुआत खुद से होगी.

सब ओर है भ्रष्टाचार की बात
देश को जकड़े जिसके दांत
आओ अब सब कहें
मुझसे होगी शुरुआत!

लूटा है नेताओं ने देश तो क्या?
बदला है सच्चाई ने भेष तो क्या?
उठा यह नेकी का पुलिंदा तू
दहाड़ दे भ्रष्ट कानों में तू
अब हम भी लगा बैठे हैं घात
बोल! मुझसे होगी शुरुआत!

महंगाई की ये मार हम पर क्यों?
भ्रष्टों को खुली, आज़ाद हवा क्यों?
दृढ़ को निश्चित कर ले तू
डिगा दे हर गद्दार को तू
अब दे देंगे हर पापी को मात
बोल! मुझसे होगी शुरुआत

गूंगों को इन्साफ मिला है कब?
बिन बोले सुकूं से मरा है कब?
उँगलियों की मुट्ठी बना ले तू
राजाओं की गद्दी हिला दे तू
न रंग, न धर्म और न जात
बोल! मुझसे होगी शुरुआत
हाँ! मुझसे होगी शुरुआत!


इस संगीतमय कविता का विडियो भी आप देख सकते हैं (राजा पुंडलिक अंकल का धन्यवाद इसके लिए)

और केवल ऑडियो भी सुन सकते हैं!


स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं!

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

तपस्या

"तपस्या", एक ऐसा शब्द है जो हमें प्राचीन काल में ले जाता है जहाँ एक इंसान योगासन में बैठा, भगवान को याद कर रहा है और घोर तन्मयता के कारण अपने आस पास की हलचल से बेखबर है। कुछ लोग "तपस्या" शब्द से ऐसी कहानियां भी याद करते हैं जो हमें बचपन में सुनाई जाती थी कि फलां ऋषि थे जो एक पैर पर खड़े हो कर तपस्या करते थे, या फलां ऋषि थे जो केवल फूल-पत्तों से पेट भरकर तपस्या करते थे और मोक्ष को प्राप्त होते थे।

आज के युग में चीज़ें बदल गयी हैं। ऋषि के भेस में कोई दिखता है तो सबसे पहला ख्याल "ढोंगी बाबा" का आता है। और आये भी न क्यों? सदियों से इस "तपस्या" में भ्रष्टाचार फैला है और आज नतीजा यह है कि सिद्ध साधू भी "ढोंगी बाबा"की श्रेणी में आ रहे हैं (वो कहते हैं ना, "गेहूं के साथ घुन भी पीसा जाता है")

पर एक "तपस्या" कभी नहीं बदली और वो है एक आम आदमी की तपस्या। सदियों पहले भी वो कुछ पाने के लिए, कुछ कर गुजरने के लिए तपता था, जड़ता था, भीगता था और आज भी उसे कुछ हासिल करने के लिए यह लड़ाई लड़नी पड़ती है। और यह लड़ाई इस देश के लिए भी उतनी ही ज़रूरी है क्योंकि देश में बदलाव बहुत तेज़ी से आ रहे हैं।

आजकल के युवाओं को देख कर देश पर भरोसा कुछ बढ़ रहा है क्योंकि ये वही लोग हैं जो परम्पराओं और रूढ़िवादिताओं को तोड़कर कुछ नया करना चाह रहे हैं, एक नए युग का निर्माण। आप हर रोज किसी ऐसे युवा से मिलेंगे जो 9:00 से 6:00 की नौकरी नहीं कर रहा है परन्तु पढ़-लिखकर, अपने आस-पास पल रहे दुविधाओं के लिए नए नए उपाय निकाल रहा है और अपने बल-बूते पर कंपनी खड़ी कर रहा है। कई ऐसे युवा तपस्वी मिलेंगे जो बड़े बड़े कॉलेजों से पढ़कर नौकरी अस्वीकार कर रहे हैं और अपने ज्ञान जे भण्डार से अपने गाँव, शहर, इत्यादि में सदियों से चले आ रहे सवालों का जवाब ढूंढ रहे हैं। इनमें से कई तो ऐसे भी हैं जो धर्म की ओर बढ़ रहे हैं और अपने धर्म के बारे में विस्तार से जानकार यह ज्ञान बाँट भी रहे हैं। ऐसे युवाओं के बारे में पढ़ना-जानना जितना ज़रूरी है, उससे ज़रूरी है औरों को इनके बारे में बताकर, इनकी हौंसला-अफजाई करना। तभी इस युग का निर्माण होगा और यह देश फ़िर से विश्व सरताज पहनेगा।

पर एक युवा तपस्वी को यह समझना बहुत ज़रूरी है कि शहरों में बढ़ रहे चकाचौंध और दिखावे में कहीं वे भी ना फिसल जाएँ अन्यथा उनकी तपस्या भी सिर्फ दिखावा ही रह जाएगी। यह जानना ज़रूरी है कि अभी कमाया हुआ हर एक पैसा अहम है। अगर पैदल चल सकते हैं तो रिक्शा क्यों लें? अगर रोटी मिल रही है तो पिज्जा में पैसे क्यों गंवाएं? जब तक इंसान पैसे की कीमत नहीं समझता, तब तक वह कभी भी सफल नहीं हो सकता। ऐसे भी कई उदाहरण मिल जाएंगे जहाँ जोश में कुछ नया तो शुरू कर लिया पर होश को काम में नहीं लाये और सारे पैसे गंवाकर फ़िर से उसी चूहे बिल में घुस गए।

दूसरी बात जो एक युवा उद्यमी के लिए बहुत आवश्यक है, वह यह है कि वह अपने परिवार से सदा जुड़ा रहे। सबकी रजामंदी से किया हुआ काम फ़िर बहुत आसान हो जाता है। अगर आप विफल भी हुए तो आपका परिवार आपको कभी नहीं छोडेगा मगर उस वक्त आपके दोस्तों का कोई नामो-निशान नहीं मिलेगा। इसलिए अपने परिवार के साथ हमेशा जुड़े रहे क्योंकि वे ही आपके सच्चे हितैषी हैं और अग्रजों के मार्गदर्शन से कई चीज़ें आसान हो जाती हैं।

तीसरी बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ये दुनिया जितनी तेज़ी से दौड़ रही है, इस दुनिया का खाना भी उतना ही खराब होता जा रहा है। कई लोग तो अपना बसर "फास्ट फ़ूड" पर ही कर रहे हैं और यही कारण है कि दिल के दौरों से मौतें अब 25-30 सालों में भी होने लगी है। एक तो आप काम से इतने परेशान रहते हैं और ऊपर से आपका खाना, खाना नहीं ज़हर? नए दिशाओं में बढ़ने वाले युवकों के लिए अच्छा, स्वस्थ खाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जब आप स्वस्थ खाना खाएंगे तभी आप स्वस्थ रहेंगे और तभी आपकी उर्जा बनी रहेगी। उर्जा रहेगी तभी आपकी तपस्या सफल होगी इसलिए इस बात का ख़ासा ध्यान रखना भी उतना ही आवश्यक है।

युवा उद्यमियों (Young Entrepreneurs) के लिए यह तपस्या समय के साथ एक दौड़ है। आज वह दौर नहीं जहाँ आप 100-150 साल जिया करते थे। आज वह समय है जहाँ 60 तक पहुंचना बड़ा माना जाता है। इसलिए यह तपस्या अब और कठिन हो गयी है। ज़रूरत है आपको अपनी जान लगाने कि और ज़रूरत है बाकियों को ऐसे युवाओं को प्रोत्साहित करने की। तभी हम और आप एक ऐसे देश के वासी कहलाएंगे जिसका भूत गौरवशाली था और भविष्य भी!

मंगलवार, 11 जून 2013

संगीत बन जाओ तुम!

कब तक इस नकली हवा की पनाह में घुटोगे तुम?
आओ, सरसराती हवा में सुरों को पकड़ो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक ट्रैफिक की ची-पों में झल्लाओगे तुम?
आओ, उस सुदूर झील की लहरों को सुनो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक अपनी साँसों को रुपयों में बेचोगे तुम?
आओ, आज़ाद साँसों की ख्वाहिश सुनो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक कानाफूसी से कानों को भर्राओगे तुम?
आओ, चंद पल शान्ति की मुरली बजाओ तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक उस चीखते डब्बे को सहोगे तुम?
आओ, बच्चों की हंसी में उस लय को पकड़ो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक इन सिक्कों की खनखनाहट तले दबोगे तुम?
आओ, घुँघरू की आहट को पहचानो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक टूटे हुए दिल के टुकड़ों का मातम बनाओगे तुम?
आओ, उस एक दिल की धड़कन में समां लो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक जिन्दगी की ज़ंजीर में घिसोगे तुम?
आओ, अपनी आज़ादी में गाओ तुम
संगीत बन जाओ तुम!
संगीत बन जाओ तुम!

शुक्रवार, 10 मई 2013

ब्लॉगिंग के ५ साल

१६ अप्रैल २००८ को मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ब्लॉग किया. आज उस लेख को ५ साल से ऊपर हो गए हैं. और ख़ुशी की बात यह है कि यह किसी पंचवर्षीय योजना के तहत ब्लॉगिंग की प्रथा नहीं रही है और फिर भी सफल रही है. हमारी सरकारों की तरह नहीं जो पंचवर्षीय योजनाएं बनाती तो तो हैं पर अंततः वह सब "पंचतत्व में विलीन योजनाएं" ही रह जाती हैं.

जब मेरे ब्लॉगिंग को तीन साल हुए थे तो मैंने तब तक की की हुई ब्लॉगिंग पर एक विस्तृत समीक्षा की थी और इसलिए मैं वह वापस नहीं करना चाहता. ५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर मैं केवल अपने ब्लॉगिंग के सफ़र में आये उतार-चढ़ाव के बारे में लोगों को बताना चाहता हूँ जिससे और नए लोग जुड़ें और शिथिल पड़े ब्लॉग्स फिर से हलचल मचाएं.


बात स्कूल के समय कि है जब हिन्दी का स्तर बहुत नीचे गिर रहा था और बंगाल में तो इसका स्तर और भी नीचे है जहाँ लोग ठीक से हिन्दी बोल भी नहीं पाते हैं (हाँ जी, वहाँ लड़की भी बोलती है "मम्मी हम स्कूल जा रहा है" जिसपर मम्मी उत्तर देती है "ठीक है, शाम को हम तुम्हारे साथ मार्केट चलेगा, जल्दी आ जाना").
मुझे याद है कि हमारे हिन्दी के अध्यापक बड़े ही कड़े मिजाज़ के हुआ करते थे और उनके पेपर में ५०-६० नंबर आना बड़े गर्व की बात होती थी. उस समय मैं घर पर हिन्दी अपनी माँ से पढ़ा करता था और कक्षा ९ में एक एग्जाम के जब पेपर बंट रहे थे तो एक पेपर पर आ कर सर अटक गए और बोले - "ये लड़का कौन है? इसका पेपर चेक करके बहुत मज़ा आया. केवल एक मात्रा की गलती है दोनों पपेरों को मिला कर." फिर मैं पेपर लेने गया तो पूरी क्लास नी ताली मार दी. हम तो अति प्रसन्न हुए और घर जा कर बताया तो घर पर भी वाह-वाही. उसके बाद से तो जब भी हिन्दी सर मिलते तो उतने खडूस से ना लगते. अब ये तो होना ही था :)

फिर कई साल बीत गए और मेरा हिन्दी से नाता टूट सा ही गया. पढाई में इस कदर घुसे कि फार्मूला, स्ट्रक्चर और मोशन के अलावा मुझे न तो कुछ सुनाई देता और न कुछ दिखाई. पर वक़्त अपनी चाल अपनी चाल से ही चलता है और कॉलेज में आने के एक साल बाद मुझे लगा कि हिन्दी की डोर फिर से संभाली जाए. तो हम जुड़ गए कॉलेज के हिन्दी प्रेस क्लब के साथ. क्लब का काम कैंपस पे हो रही हलचल को लोगों तक न्यूज़लैटर के माध्यम से पहुँचाना था और हम भी लग गए इस काम में.

उस समय अंतरजाल भारत में अपने उत्थान पर था और हम भी उसकी गिरफ्त में आ रहे थे और तभी ब्लॉग-ब्लॉग का हल्ला सुना. कैंपस पे कई लोग ब्लॉग करते थे पर सब अंग्रेजी में. ऐसा नहीं था कि अंग्रेजी में हमारी रूचि नहीं थी पर हमें यही शिक्षा मिली थी कि जो अपनी मातृभाषा का आदर करता है, वह और सभी भाषा का उतना ही आदर कर सकता है पर इसका विपरीत नहीं होता. इस सीख को मैं आज भी उतना ही सच मानता हूँ और मेरा तो यह भी मानना है कि अगर आपकी मातृभाषा सदृढ़ है तो किसी और भाषा को सीखना बहुत आसान हो जाता है. लेकिन भारत के बदलते पहलुओं से मैं लोगों की खिचड़ी भाषा सुनकर काफी दुखी हूँ. वह ना तो इस छोर के रहे हैं और ना ही उस छोर के. ढिंढोर बहुत पीटते हैं मगर.

फिर एक रात मैंने ब्लॉग बनाया. यूँ ही कुछ लिखना था तो कुछ लिख दिया. कोई खबर न थी कि कौन पढ़ेगा, कौन टिपियाएगा. पर अगले दिन जब उठा तो देखा कि २-३ टिप्पणी मेरा स्वागत कर रही है और मैं बहुत खुश हुआ. सच कहूँ तो शुरू की २-३ सीढ़ियों को चढ़ने में जो लोग मदद करते हैं, वही सफलता के असली हक़दार होते हैं. आज अगर उस पोस्ट पे कोई टिप्पणी नहीं आती तो शायद मैं इस मुकाम पर कभी नहीं पहुँच पाता. फिर यह सिलसिला कायम रहा और उसी साल मैंने अपने क्लब के लिए भी एक ब्लॉग तैयार कर दिया जिससे हम तकनीक के माध्यम से कैंपस के बाहर भी अपनी पहुँच बढ़ा सकते थे. इसके अलावा मैं गानों का बहुत शौक़ीन हूँ और इसलिए मुझे गानों के बोल चाहिए होते थे पर वो सब अंग्रेजी में ही होते थे. कुछ इक्के-दुक्के साइट्स ही थे जो हिन्दी में बोल मुहैय्या करवाते थे. इसलिए मैंने अपना ही ब्लॉग "लफ़्ज़ों का खेल" शुरू कर दिया और कुछ ही महीनों में उसे भी ५ साल हो जाएँगे जिसपर करीब ९०० गाने हैं और ६.३ लाख से भी ज्यादा हिट्स आ चुके हैं.

ब्लॉगिंग चलता रहा है और लोगों के सुझावों और प्रोत्साहन से मैं लिखता रहा जिसे कई लोगों ने पसंद भी किया. मेरा उसूल सिर्फ एक था और एक है "ऐसा लिखो जो लोगों के बीच से उठी हो और लोगों के लिए हो". मेरा मकसद सुसज्जित और विभूषक हिन्दी लिखना नहीं है. मेरा मकसद हिन्दी के उस पतन को रोकना और फिर उसे उत्थान की ओर ले जाना ही रहा है. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूँ और आम भाषा में लिखता हूँ ताकि जो लोग इस भाषा से दूरी बना चुके हैं वह फिर से इसको अपनाएं क्योंकि जो देश अपने भाषा की कदर नहीं कर सकता, वह देश सिर्फ विनाश की ओर ही मुंह करे खड़ा है. आदर नहीं तो कम से कम निरादर तो ना करें! कई युवाओं को जब गर्व के साथ बोलते हुए देखता हूँ कि मुझसे तो हिन्दी पढ़ी-लिखी नहीं जाती तो मुझे वही अनुभव होता है जब उनके सामने कोई कहे कि "मुझे तो अंग्रेजी पढनी-लिखनी नहीं आती"

खैर, ३ ब्लॉग संभालते संभालते अब यह एहसास हो चुका है कि ब्लॉगिंग आसान नहीं है. कुछ समय आप अपनी ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि लेखन के प्रेरणा स्रोत ही गायब हो जाते हैं. अगर समय भी हो तो आप कुछ ऐसा लिख ही नहीं पाते जो रुचिकर हो. और कभी इसके ठीक विपरीत होता है. आपके पास सोच का भंडारा भरा पड़ा होता है पर उसे खाली करने का समय नहीं!

मेरे ख्याल से मेरे साथ कैंपस पे जितने भी लोगों ने ब्लॉगिंग शुरू की थी, आज सब ठप्प पड़े हैं.
कारण है - काफी अनियमित ब्लॉगिंग और लेखों की गुणवत्ता में कमी.
अगर आपका ब्लॉग है जिसका आप पुनर्जन्म चाहते हैं या फिर आप ब्लॉगिंग शुरू करना चाहते हैं तो यह दो सबसे अहम् पहलू हैं. अच्छा लिखिए, अच्छा पढ़िए और निरंतर लिखिए. मैंने खुद के लिए एक नियम यह बना लिया है कि हर महीने एक लेख तो लिखूंगा ही. इसलिए नज़रें और कान हमेशा खुली रहती हैं कि किस विषय पर लिखा जाए. पर कुछ नियमबद्ध काम करने से फायदा बहुत होता है. बड़े बड़े गुणवान सिर्फ इसीलिए मात खा जाते हैं क्योंकि चीज़ों को लेकर उनमें सहनशक्ति नहीं होती. वह बड़े जल्दी निराश हो जाते है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि जो पोस्ट मुझे बहुत पसंद आई हो, उसको काफी कम लोगों ने पढ़ा है और काफी कम टिप्पणियाँ आई हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि अगला पोस्ट नहीं आया हो. अगर ऐसी दुविधा में पड़ जाएं तो यही सोचें कि मैं अपने लिए ही लिख रहा हूँ, मैं अपने विचारों को लेखन की दिशा दे रहा हूँ, बस!

एक और बात जो मैं साझा करना चाहूँगा, वो ये कि नए प्रयोग करने से घबराएं नहीं. मैंने करीब करीब हर रस पर लिखा है जिनमें से कई बहुत ही सामान्य हैं पर नए अभ्यास करके चित को बड़ी शान्ति मिलती है. बीच में लघु कथाएं भी लिखनी शुरू कि जो काफी सफल भी रहे और आगे भी मैं उनपर लिखता रहूँगा.

पहले मैं समझता था कि टिप्पणी करना भी बहुत ज़रूरी है जिससे लोग भी आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करें. पहले समय और भाव दोनों थे तो मैं भी काफी ब्लॉग्स पढता था और टिप्पणी भी करता था. पिछले कुछ महीनों में यह कम हुआ है जिससे मैं खुद परेशान हूँ. पर मैं यह नहीं मानता कि टिप्पणी करना अनिवार्य ही है. अगर आप अच्छा लिखेंगे तो लोग खुद खोजकर आपके ब्लॉग को पढेंगे. अच्छी लेखनी और टिप्पणी का कोई सम्बन्ध नहीं है. इसलिए टिप्पणीमुक्त हो कर लिखें!

अब बात रही ब्लॉगिंग के जीवन में फायदे कि तो मैं ब्लॉगिंग के माध्यम से कई विरष्ठ लोगों से मिला हूँ और ब्लॉग के माध्यम से ही मेरी कवितायेँ "अनुगूंज" (संपादक: श्रीमती रश्मि प्रभा) में भी छपी. इसके अलावा कई बार जनसत्ता में मेरे आलेख छपे (संतोष त्रिवेदी जी :)). पर इन सब चीज़ों के लिए मैंने कोई कोशिश नहीं की. बस अपनी धुन में लिखता गया और लोगों को पसंद आया तो उन्होंने खुद पूछ लिया छपवाने के लिए.

ब्लॉगिंग का यह ५ साल का सफ़र काफी खुशनुमा रहा है और उम्मीद यही है कि लिखता रहूँ, मिलता रहूँ, पढता रहूँ, जब तक है जान, जब तक है जान :)

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

माँ का आँचल

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प्रशांत एक सुशिक्षित और भद्र इंसान था। घर से दूर रहते ५-६ साल हो गए थे। अब नौकरी कर रहा था ३ सालों से। उससे पहले पढाई। दिल का बड़ा सख्त था। साल में २-३ बार ही घर आ पाता। नौकरी पेशा आदमी की सांस और आस दोनों उसके मालिक के हाथ में होती है। चंद रुपयों के लिए इंसान केवल दास बन कर रह जाता है।

छुट्टियों पर घर आया। माँ ने आते ही टोह लगा ली थी कि प्रशांत परेशान सा लग रहा है पर वक़्त को अपना काम करते दे रही थी, कुछ कहा-पूछा नहीं।

दूसरे दिन रात को प्रशांत की नींद उड़ गयी थी। उसके जज़्बात उसको तोड़ने को आतुर हो रहे थे। ज़िन्दगी भर की परेशानियां उसे सोने न दे रहीं थी। २ घंटे तक लेटे रहने के बाद भी जब नींद न आई तो उसके विचारों का बाँध टूट गया। वह उठा और जा कर माँ-पिताजी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।

माँ ने दरवाज़ा खोला तो वह माँ से लिपट कर रोने लगा। माँ घबराई नहीं, उसे पता था कि यह आज या कल तो होना ही था। सर सहलाते हुए उसे अपनी गोद में सुला लिया। किसी ने कुछ नहीं कहा पर माँ-बेटे का जो रिश्ता था, वह सब कुछ कह गया। प्रशांत ने माँ के आँचल में सारे गम उड़ेल दिए। सभी उत्तेजनाएं और परेशानियां कब उस ममत्व के महासागर में समा गए, इसका अंदाजा ही न लगा और वह गहरी नींद में सो गया।

सुबह देर से उठा। माँ घर का कामकाज कर रही थीं और वहीँ प्रशांत की दुनिया तो बिलकुल हलकी और आनंदमय हो चली थी।

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

घर की सैर

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रेल की सीटी ने कूच के आगाज़ को आवाज़ दे दी थी। एक गुब्बारा देखा था कई साल पहले जिसके पीछे बस्ती के कुछ बच्चे भागे जा रहे थे। मन उस गैस के गुब्बारे की तरह उड़ने लगा था। जाने क्यों घर जाते वक़्त मन का गुब्बारे की तरह उड़ना और उम्र के बीच कोई वास्ता नहीं होता।

होली का आना गर्मी का सूचक होता है पर ट्रेन के एसी डब्बे में सर्दी-गर्मी का फर्क मिट जाता है। कई साल पहले जब एसी में चढ़ना धन-शान की बात होती थी, तब हम गर्मियों में स्लीपर में चढ़ा करते थे। बिहार और यूपी में लू की मार खाते, उंघते-उन्घाते, धूल में सने हुए, फटे-हाल अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचते थे। रेल गाड़ी की आवाज़ हमने उन्हीं डब्बों में सुनी-सीखी थी। घर जाते वक़्त खाने का कोई हिसाब न होता था। हर छोटे-बड़े स्टेशन पर उतरते और वहाँ की नामचीन चीज़ खाते। अब रेलवे हमारी सेवा में हमेशा तत्पर रहता है। सोने को बिस्तर, खाने को गरमा गरम खाना, एसी इत्यादि सब जुटाता है। समय की दूरियां तो घट गयी है, पर लोगों की दूरियां?

ट्रेन में खाते पीते घर पहुंचे। घर पहुंचे तो देखा की माँ के हाथों का खाना बना है और उसमें एक अलग लज़ीज़पन टपक रहा था। समझ आया कि ट्रेन का खाना कारोबार के लिए बनता है, माँ का खाना प्यार के लिए। जमकर खाए और होली की तैय्यारियाँ शुरू हो गयी।

रात का मुहूर्त निकला है होलिका दहन का। हम गोबर की थेपड़ी से बने अलग अलग आकार के बड़कुलों को जला आये हैं। महंगी गाड़ियों में चलने वाला इंडिया इस परम्परा के खिलाफ है, प्रदुषण होता है। ११ नंबर की गाडी पर चलने वाले भारत को पता है फसल कटाई के समय निकले कीड़ों को ख़त्म करने का यह तरीका बहुत ही सरल और उम्दा है।

सुबह हो चुकी है। सड़के खाली हैं। घरों में बच्चे रात से ही गुब्बारे भरने में लगे हैं। सड़के खाली इसी लिए हैं। कौन सी दिशा से ये गुब्बारे सर पर गिरेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है, इसलिए लोग घरों में क़ैद हैं। पर जिनका दिल खुला आसमान है, वो क़ैद नहीं होते। वो घूम रहे हैं सड़कों पर, आवारा, मस्त हुए।
हम जानबूझकर घर पर देर तक सोते हैं। उठे हुए भी सोने का नाटक करते हैं। इतनी दूर आए हैं, माँ की डांट सुने बिना थोड़े न जाएँगे। पर माँ को बताते नहीं हैं कि जानबूझकर शरारत हो रही है। माँ गुस्सा होती है पर फिर उठकर आशीर्वाद ले लेते हैं, माँ खुश।

हम भी अपने बिल्डिंग की छत पर पड़ोसियों के साथ रंगोली ठिठोली कर रहे हैं। कुछ बच्चे शैतान हैं। पिचकारी से पीठ पर पानी की गोली दाग रहे हैं। अभी तक के सूखे त्वचा पर जब ज़रा सी भी फुहार पड़ती है तो अकड़न सी आ जाती है, गुदगुदी होने लगती है। हमारे हाथ रंगे हुए हैं। कई रंगों ने मिलकर नए रंग का रूप ले लिया है। होली का त्यौहार अगर भाभियों-सालियों के साथ न मने तो व्यर्थ है। पर अभी सिर्फ भाभियों के साथ ही खेल रहे हैं। भाभियाँ भी आज साड़ी का पल्लू कमर में खूंच कर आई हैं। षड़यंत्र रचा जा रहा है। पर षड्यंत्र भी किस काम का जब हम खुद ही रंगों के समंदर में कूदने को बेचैन हैं।
तभी ढोलक की ताल शुरू हो गयी है। अब सब रंग बरसे..., होरी खेले ..., जैसे लोकप्रिय गानों को गा रहे हैं और नाच रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानों कई सालों का रंग आज सब पर भंग की तरह चढ़ रहा है। त्योहारों का मकसद पूरा होता दिख रहा है। गुरूजी की ठण्डाई और होली की मिठाइयों का दौर जारी है। पर ये मिठाइयों का स्वाद रंगों जैसा होने लगा है। रंगे हाथों से खाने का भी क्या मज़ा है। होली का आनंद शरीर का भीतरी भाग भी उठा रहा है!

सीढ़ियों पर रंगे हुए पैरों की गुलाबी छाप जगह जगह दिख रही है वो भी अलग अलग नापों के। छोटे छोटे हाथ दीवालों और सीढ़ी की रेलिंग पर साफ़ छप चुके हैं। दिवाली तक रंगों की ये निशानियाँ सुरक्षित हैं।

अब नहाकर पिछले ४ घंटे से चढ़ रहे रंग को मिटाने की जद्दोजहद होगी। रंग पूरी तरह नहीं छूटा है या यूँ कहें की उसकी कोशिश ही नहीं की है। आखिर ४ घंटे की मेहनत, अगले ४ दिन तक चेहरे पर साफ़ झलकनी चाहिए। किसी ने सुझाया है कि आज क्रिकेट खेलेंगे। सामने विशाल मैदान है। इतना बड़ा की शहर के १० स्कूल समा जाएँ। ३ दिन तक जमकर खेला। अब लड़खड़ाकर चल रहे हैं। शरीर के हर कोने में दर्द है। पर दिल में ज़रा भी नहीं। बचपन के दिन याद आ गए।

माँ पूछती है कि खाने में अगर कुछ "स्पेशल" बनवाना है तो बता दो। हम कहते हैं, "हमें सादी दाल-रोटी दे दो माँ, वही हमारे लिए स्वर्ग है।" माँ हंस पड़ती है। हम-सब कुछ गीत गुनगुनाने लगते हैं और गीतों का माहौल शुरू हो जाता है। हम सब संगीत से जुड़े हैं। २ घंटे यही सिलसिला चलता है। थकान ज़रा भी नहीं। संगीत से अलग उर्जा आ गयी है शरीर में।

वापसी का समय है। रेल सफ़र तो वैसा ही रहेगा। पहले माँ खाने के लिए पूड़ियाँ और आलू की सब्जी बनाती थी। रेलवे ने उस स्वाद पर भी पानी फेर दिया है। वापस निकल पड़े हैं बेहिसाब संघर्ष की ओर जहाँ लोग ज़िन्दगी काट रहे हैं। हम तो कुछ दिन, जी आये हैं ज़िन्दगी के। अब उस जीये हुए ज़िन्दगी की यादों के सहारे ही भावी ज़िन्दगी कटेगी। चश्मे के कोरों में जमे हुए गुलाबी रंग कई दिनों तक इस होली की याद दिलाएंगे। नाखूनों में जमे रंग, एक रंग भरे समय की ओर इशारा कर रहे हैं। अब माँ की डांट फोन पर सुनेंगे। भाभियों के साथ मटरगश्ती के लिए दिवाली का इंतज़ार रहेगा।

ये घर की सैर नहीं, ज़िन्दगी की सैर है।
ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी है...

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

उम्मीदें

काश ये ऐसा हो जाता, काश वो ऐसा हो जाये। पर ये, वो क्यों नहीं? पर वो, ये क्यों नहीं?

सबके मन में एक तूफ़ान फड़कता रहता है कि जो वो चाहे वैसा हो। "उम्मीद" एक इतना सशक्त और दृढ़ शब्द है जिसके दम पर ये दुनिया टिकी हुई है। उठते ही दिन के अच्छे होने की उम्मीद के साथ और रात को अच्छी नींद की उम्मीद के साथ, हमारा समस्त जीवन इसी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है।

बचपन से माँ-बाप की निगाहें बच्चों पर टिक जाती हैं कि मेरा बच्चा बड़ा हो कर नाम रोशन करेगा, मेरी बच्ची अपने काम में बाकी सब से आगे निकलेगी। क्लास में थोड़ा अच्छा करो तो शिक्षक की उम्मीदें बढ़ जाती हैं और फ़िर पूरा समाज आप पर नजरें गड़ाए देखता रहता है कि ये इंसान ज़रूर उसका नाम रोशन करेगा।

उम्मीद! उम्मीद! उम्मीद!
कभी कभी तो इंसान इसी उम्मीद से इतना घबरा और टूट सा जाता है कि वह खुद ये उम्मीद करने लगता है कि इन उम्मीदों से उसका पीछा छूट जाये, पर ऐसा हो नहीं पाता है। वह इसी ख्वाहिशों के अथाह समंदर में तड़पता हुआ सा हाथ-पैर मारता रहता है पर किनारा कभी नहीं मिल पाता। वह तो उसकी आखिरी सांस पर ही उसे किनारा दिखता है।

वैसे तो यह उम्मीद है बेहतरीन चीज़। इसके बिना दुनिया का कोई काम नहीं हो सकता। अगर मैं इस उम्मीद के साथ डॉक्टर के पास न जाऊं कि वो मुझे ठीक कर देगा, तो मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊंगा। अगर मैं कारोबार में मुनाफे की उम्मीद कभी न करूँ तो उसका ठप्प होना तय है। अगर आज रात मैं कल सुबह उठने की उम्मीद के साथ न सोऊं तो मेरी मृत्यु निश्चित!

उम्मीद, विश्वास, ख्वाहिश! यह सब दुनिया के ऐसे सच हैं जो तालमेल में रहे तो जीवन को आनंदमय बनाते हैं पर वही अगर सीमाओं को तोड़ कर निकलने की कोशिश करें तो जिन्दगी में बाढ़ का ऐसा जलजला पैदा कर सकते हैं जो खुद कि ही नहीं वरन् आस पास की जिंदगियां भी बर्बाद करने की काबिलियत रखता है।

पर बढ़ती उम्मीदों का सही समय पर टूट जाने से इंसान को भावी जिन्दगी में बहुत सुकून रहता है। ऐसे लोगों को धन्यवाद देना चाहिए जो आपको ये एहसास दिलाते हैं कि आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे थे जो कि गलत था। पर इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि आप ऐसे व्यक्तियों को अपने आस पास न फटकने दें जो आपकी छोटी छोटी ख्वाहिशों को समझने में भी नाकाम हैं। ऐसे लोगों से दुनिया टूट जाएगी। अगर दम है तो सामने बोल दें, नहीं तो हमेशा की छुट्टी। पर अगर किनारा न लिया तो आपके उम्मीदों का बाँध फ़िर से भरेगा और एक कणिय उम्मीद से टूट कर आपको बहा ले जाएगा।

उम्मीद तो हम सबको है कि हम अच्छा खाएं, अच्छा पियें, अच्छे मकान में रहे, बढ़िया गाड़ी में घूमें, अच्छी सरकार चुनें, अच्छे लोगों के समक्ष रहें और न जाने क्या क्या। पर अगर यह सबख्वाहिशें पूरी हो गयीं तो उम्मीद का खात्मा हो जाएगा और अगर उम्मीद चीर-निद्रा में सो गयी, तो हर रूह से आत्मा का पलायन निश्चित है।

आज के भौतिकवाद जहां में उम्मीदों का मेला लगा रहता है। प्रचारक कंपनियां लोगों की उम्मीदें बुन रही हैं। लोगों की सोच धूमिल हो चुकी है या फ़िर बिलकुल नदारद। ये उम्मीदों का गुबार इतना महीन है कि एक तिनके की चोट से आपके जीवन की लीला समाप्त कर सकता है। अगर यह भौतिकवाद आपको लील गया तो आपकी आने वाली पीढ़ी शायद आ ही न पाए या फ़िर आए तो आपको जन्मांतर तक कोसे। अपनी उम्मीदों का घड़ा हमेशा कुछ खाली रखें। अगर वह उबल उबल कर गिर रहा है सँभलने का ज्यादा वक्त नहीं है।

ख्वाहिशें होना बुरी बात नहीं है, उसमें सामंजस्य होना ज़रूरी है। पश्चिम को देखकर युवा बहक रहे हैं और युवा तो क्या, एक दशक पुरानी पीढ़ी भी इसके लपेटे में है। आज जाग गए तो भाग जाग उठेंगे नहीं तो रूहें काँप उठेंगे। उम्मीद की उम्मीद भी सीमाओं के भीतर रख कर हम एक बेहतर जीवन की कामना कर सकते हैं।

इसी उम्मीद के साथ कि आगे से थोड़ा और नियमित और बेहतर लिखूंगा आपको आपकी उम्मीदों के पूरी होने की कामना के साथ छोड़े जा रहा हूँ।

*उम्मीद है कि आपके कमेंट्स जोरो-शोरों से आएँगे :)