नया क्या?

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अपने

सोचा करता था वह "अपने" लोगों के बारे में
वही जिनको वो कई रिश्तों से पहचानता था
माँ, पिता, भाई, बहन, चाचा, दोस्त, जिगरी दोस्त, चड्डी दोस्त..

"अपने"
यह शब्द भेदती थी उसे कभी..
क्या यह शब्द दुनिया का छलावा नहीं है?
इस शब्द ने कईयों की दुनिया नहीं उजाड़ी है?
पर
फ़िर
क्या इन्हीं "अपनों" ने उसकी ये ज़िंदगी हसीन नहीं बनाई है?
क्या वही ये "अपने" नहीं हैं
जो उसके सुख-दुःख में,
उसके गिरते क़दमों
और
कन्धों को सहारा देते रहे हैं?

पर आज उसे "भय" लग रहा है
आज उसके दिल से खून का कतरा सूखा जा रहा है
आँखों का पानी शरीर में ही कहीं सूख रहा है

क्यों..
आज न जाने क्या ख्याल आया
क्या ये "अपने" उसका साथ निभाएँगे?
तब
जब
पंचतत्व
उसके खून के हर कतरे को,
शरीर की हर बूँद को,
रूह के हर कण को,
अंगों की हर सांस को,
अपनी ओज में सुखाएगा
आखिरी आवाज़ लगाएगा?

उस दिन शायद उसे "अपने" छलावा लगेंगे
वो उसका साथ वहीँ छोड़ देंगे
क्या यह ज़िंदगी का छलावा नहीं है?
जो की फिल्म की चरमावस्था (क्लाईमैक्स) को
दुखांत (ऐन्टी-क्लाईमैक्स) कर देगा?
जिनके लिए पूरी ज़िंदगी जी है
बस वही नहीं मिलेंगे..

"अपनों" को "अपना" कहना
क्या उस दिन इस शब्द के खिलाफ नहीं हो जाएगा?
यह सोच कर वह आज घबरा रहा है
पर
फ़िर
जब तक सच्चाई का पता नहीं चलेगा
तब तक इस छलावे को जीना पड़ेगा
यह छलावा जिसे हम "अपने" कहते हैं
आज यही सच्चाई है..
आज यही ज़िंदगी है..