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शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

सामंजस्य

यह आलेख जनसत्ता में ३ दिसम्बर को छपा था। इ-संस्कार यहाँ पढ़ें।

"सामंजस्य" अर्थात 'तालमेल', एक ऐसा शब्द है जिसकी सही पहचान और सही परख हम-आप करने से चूके जा रहे हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो इस श्रृष्टि के पूरे वजूद को अपने अंदर समेटे हुए है। पर इस भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी (ज़िन्दगी? शायद यह शब्द अब बदनामी की राह पर है) में विरले ही हैं जो इस बात पर ध्यान भी दे रहे हों।

बचपन से हर जगह सामंजस्य देखा है। घर पे, स्कूल में, मोहल्ले में.. लगभग हर जगह। और जहाँ नहीं देखा, वहाँ तबाही और अराजकता!

हर सुख का कारण कौन? - सामंजस्य!
हर दुःख का कारण कौन? - सामंजस्य!
एक जगह सामंजस्य बना हुआ है और दूसरी जगह बिगड़ा हुआ।

जिस दिन घर पे माता-पिता का सामंजस्य बिगड़ता है, उस दिन घर, घर नहीं रहता। उनके आपसी सामंजस्य से ही मकान घर बना है। जिस दिन छात्र-शिक्षक का सामंजस्य बना रहता था, उस दिन ज्ञान खूब लुटाया और बटोरा जाता था!

आज से कुछ साल पहले तक जब हम कार्य में धीमे और दिमाग में तेज हुआ करते थे, पृथ्वी का सामंजस्य बना हुआ था। फ़िर? फ़िर क्या हुआ? हमारे कार्य बहुत तेज होने लगे और हमारे दिमाग स्थूल होते चले गए। पृथ्वी का सामंजस्य बिगड़ गया। सुनामी, भूकंप तो पहले भी आते थे पर बिन मौसम बरसात, बेवजह ठण्ड और गायब ऋतू, यह सब तो बिगड़ते सामंजस्य की ही देन है। हमारी लोलुपता और नीच सोच ने पेड़ों पर गाज गिराई और उनकी जगह कंक्रीट के घर..ओह घर नहीं, 'मकान' ठूंस दिए गए।

पर यह तो सामंजस्य बिगड़ने का बहुत बड़ा स्वरुप है। अगर उसका बहुत सरल उदाहरण दूं तो यह कहूँगा कि जिस दिन हम अपने शरीर को मद-सेवन करवाते हैं उस दिन शरीर, दिमाग सब बेढंगा हो जाता है और अचरज की बात यह है कि इस बे-सिर-पैर की क्रिया को लोग "हाई" होना कहते हैं जबकि शरीर तो उसी समय अपने सबसे निचले स्तर पर काम कर रहा होता है।

जब दो प्रेमियों के बीच प्यार बराबर न हो तो कुछ ही दिनों में प्रेम फीका पड़ जाता है पर अगर एक-दूसरे की सोच और भावों का सही मिश्रण हो तभी वह जन्मांतर का प्रेम कहलाता है।

ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इंसान हमेशा ही जीतता रहे। जो इंसान हारता नहीं, वह विजेता कहला ही नहीं सकता। जब हार और जीत का सही सामंजस्य जब है तो विजेता बनते है, सदी के धुरंधर!

एक अटपटी लगने वाली बात कहूँ तो अगर चोर न हों तो पुलिस का क्या काम? संसार में इस बात का भी सामंजस्य है कि अच्छे और बुरे दोनों लोगों का होना बहुत ज़रुरी है नहीं तो अच्छे को बुरे से भिन्न करने का मापदंड कहाँ रह जाएगा?

हर कार्य में सामंजस्य की ज़रूरत है। गरीब-अमीर, मस्ती-शान्ति, काम-परिवार, दिखावा-छुपावा, खेल-आराम, क्रोध-हंसी, लगाव-अलगाव और जीवन के अभिन्न आयामों में भी तालमेल बैठाने की कोशिश जब तक नहीं करेंगे हम सब परेशान, निराश, हताश और हारे हुए रहेंगे।

जिस दिन हम अपनी सोच में सामंजस्य का बीज बो देंगे, उस दिन से हम खुद में और अपने आस पास खुशी की बाढ़ देखेंगे। और यह बहुत आसान है। बस हर दिन "खुद" को, खुद की "सोच" को कुछ समय दें, एकांत में। इस जीवन की आपा-धापी, चकाचौंध और भेड़-चाल से खुद को अलग करें। पहले अपनी सोच और फ़िर अपने जीवन में सामंजस्य का समावेश करें, तभी हम ज़िन्दगी को जिंदादिली से और भरपूर जी सकेंगे।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

भ्रष्ट ज्ञान

यह लेख ६ अक्टूबर २०१२ को जनसत्ता में छपा था। ई-पेपर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें। (संतोष त्रिवेदी जी का फिर से एक बार धन्यवाद!)

"ज्ञानी", एक ऐसा शब्द है जिससे हम-आप खुद को पढ़े लिखे समझने वाले लोग समझते हैं कि अच्छी तरह से समझते हैं, भांपते हैं। पर क्या सच में आप इतने ज्ञानी हो गए हैं कि उसका अर्थ भली-भांति समझते हैं? ये बहुत ही गहन शब्द और विषय है जो कई हफ़्तों से मेरे मन-मंथन को छलका रहा है।

बचपन में सुना था "अर्ध ज्ञान बहुत खतरनाक होता है"। इतने से जीवनकाल में मैंने यह काफी जगह देख लिया है कि आधा ज्ञान इंसान को पूरा खा सकता है। और इंसान तो क्या, पूरे समाज, प्रजाति तकातक को ख़त्म कर सकता है।

और पता नहीं कहाँ या कैसे पिछले कुछ दिनों से एक और बात मन में घर कर गयी है "ज्ञान भ्रष्ट करता है"। शायद आपने सुना भी हो, पर यह बात भी सटीक है कि अधूरा ज्ञान और अधिक ज्ञान, दोनों ही किसी भी इंसान के लिए हानिकारक हैं।

अभी कुछ दिनों पहले मैं एक दोस्त के साथ किसी संगीत कार्यक्रम में गया। काफी अच्छा लग रहा था पर मुझे कहीं कहीं सुर छूटते हुए नज़र आ रहे थे। पर मेरा दोस्त संगीत में मगन था। उसे ये त्रुटियाँ समझ नहीं आ रही थी और इसी वजह से वह खुश था। चूँकि मैं शास्त्रीय संगीत सुनता और सीखता हूँ, इसलिए मेरा मन विचलित था और वहीँ मेरा दोस्त उसी संगीत में खुश! तब मुझे एहसास हुआ कि उसके संगीत में कम ज्ञान होने से फायदा हुआ और वह खुश है और मैं थोड़ा-बहुत जानकार भी उसी संगीत से उतना खुश नहीं!

एक और छोटा सा उदाहरण देता हूँ। जब हम छोटे बच्चे थे, तब कोई भी छोटी सी बात, चाहे वो किसी चीज़ का अचानक से गिरना या किसी अपने का अजीब सा चेहरा बनाना, हमारे चेहरे पे कितनी हँसी लाती थी। और आज एक पल है जब हमें हँसने के लिए भी बहाने ढूँढने पड़ते हैं। क्या यह ज्ञान नहीं है जिसने हमारी हँसी को भ्रष्ट किया है? चीज़ों को समझने में हम माहिर हो गए हैं, पर क्या जीने में महारत कभी हासिल कर पाएंगे?

ज्ञान पाना आसान है पर उसको खोना बहुत ही मुश्किल। दिन-प्रतिदिन हमारी समझ तो बढ़ रही है पर हमारी सोच घट रही है। ज्ञान ने हमारे रहन-सहन को इतना भ्रष्ट किया है कि ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी आम बातें भी आजकल हमारे समझ के परे हो गयी हैं। कभी कभी सोचता हूँ कि हमारी शिक्षा पद्धति हमें जीने के अलावा सब कुछ सिखा रही है।

क्या हमें ज़रूरत है एक नयी सोच की? एक नयी पद्धति की? एक नयी दिशा की? क्या हम कभी ऐसा ज्ञान हासिल कर पाएंगे जो हमारी मूल मानवता, मूल सोच-विचार, मूल भावनाओं को नष्ट और भ्रष्ट ना करे?

यह सवाल है आपके-मेरे ज्ञान के लिए, भ्रष्ट ज्ञान के लिए जिसका ढिंढोरा हम दुनिया भर में बजाते फिरते हैं। जिस दिन इस सवाल का उत्तर हम पा लेंगे, सही मायनों में उसी दिन हम "ज्ञानी" शब्द का अर्थ समझने में सफल होंगे।