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गुरुवार, 17 मई 2012

जनसत्ता में आलेख

पहली बार "जनसत्ता" में आलेख छपा "समाज की गति" शीर्षक से |
१४ मई २०१२ का अखबार देखिएगा | बड़ी ख़ुशी हुई |
अब पहली बार इतने बड़े समाचार पत्रिका में आलेख छपे तो कितनी ख़ुशी होगी, इसका अंदाजा काफी लोगों को होगा | पर इससे ज्यादा ख़ुशी इस बात कि की संतोष त्रिवेदी जी ने कई महीनों पहले मुझसे जनसत्ता के लिए आलेख माँगा था पर उस समय "लघु कथा" का मेरे ब्लॉग पर बोलबाला था तो उन्होंने कहा कि थोडा बड़ा लेख लिखूं | मैंने कहा कि कोशिश करुना और पिछला लेख सामाजिक खेल थोडा विस्तृत लेख था समाज और हमारी सोच पर |
संतोष जी ने चुपके से यह आलेख जनसत्ता में भेज दी और १४ मई की सुबह मुझे मेल किया कि आज के अंक में मेरा आलेख भी छपा है | सच कहूँ तो सुबह-सुबह यह मेल पढ़ कर मन बेहद खुश हो गया!
मैं तहे दिल से धन्यवाद दूंगा संतोष जी का जिन्होंने मेरे लेख को जनसत्ता में जगह दिलवाई |
आप वह लेख ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं और नीचे दिए गए चित्र में भी देख सकते हैं |

धन्यवाद!

मंगलवार, 8 मई 2012

सामाजिक खेल

समाज, एक ऐसा शब्द जो दर-ब-दर हमारे आस पास घूमता है.. मंडराता है.. डराता है.. धमकाता है.. बांधे रखता है..
इस शब्द से रिश्ता ज़िन्दगी के पहले अक्षर से जुड़ जाता है..
हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कैसे उठे-बैठते हैं, कैसे चलते हैं, क्या कार्य करते हैं, किससे मिलते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ नहीं जाते हैं, इत्यादि.. सब कुछ समाज ही निर्धारित करता है..
हम स्वयं तो कुछ हैं ही नहीं.. हम हमारी सोच को समाज के अनुसार निर्धारित करते हैं न कि अपनी इच्छाओं और कार्य-प्रबलता के अनुसार..

कुछ भी निर्णय लेने से पहले हमारे ज़हन में स्वतः ही यह ख्याल आता है कि "समाज क्या कहेगा? समाज क्या सोचेगा?"
समाज किसी एक इंसान का संबोधन नहीं है जो कि बहुत शक्तिशाली हो या अजेय हो.. वह तो हर आम-इंसानों से बना एक कुनबा है..
पर इस कुनबे से सब डरते हैं.. भयभीत रहते हैं..

समाज हम सबको एक-दूसरे से जोड़ता है पर भीतर ही भीतर हमारे दिली निर्णयों से तोड़ता भी है..
इसका भय ही है जो न जाने कितने लोगों की तमन्नाओं को राख कर देता है..
भविष्य और जिन्दगियां समाज के बहाव के अनुसार निश्चित की जाती हैं..
माँ-बाप कहते हैं कि मेरा बेटा इंजिनियर बनेगा या डॉक्टर बनेगा क्योंकि समाज में आजकल यही चलन है..
माँ-बाप कहते हैं कि मेरी बेटी अपने समाज में ही विवाह करेगी क्योंकि समाज में आजकल यही चलन है..
यह चलन कौन चलाता है?
कोई नहीं.. मैं नहीं, आप नहीं, कोई और नहीं..
और सभी कोई.... मैं, आप और हर कोई..

मैं यह व्यवसाय कर सकता हूँ कि नहीं, यह समाज की सोच के अनुसार सोचना पड़ता है..
मैं फलाने परिवार से जोड़ बना सकता हूँ कि नहीं, यह भी समाज ही निर्धारित करता है..
अनजाने में ही सही पर समाज ही एक मात्र शक्तिशाली प्रणाली है जो यह दुनिया चलाती है..

समाज और धर्म का बड़ा ही गहरा नाता है.. दोनों ने मनुष्य को अच्छे काम करने से रोका है.. और बुरे काम करने से भी..
पर दुर्भाग्य यह है कि आज समाज चुनिंदे लोगों के इशारों और हसरतों पे चलती है.. पैसा समाज को चला रहा है... मूलभूत मान्यताएं नहीं..
इसे समाज नहीं कहा जा सकता पर कहना पड़ रहा है.. दुर्भाग्यवश..

जो इस समाज से कभी नहीं डरते और अपने सारे निर्णय अपने दिल-ओ-दिमाग से ही लेते हैं वह इस भेड़-चाल से बिलकुल जुदा हैं..
उसे एक राई फर्क नहीं पड़ता कि समाज क्या सोचेगा या करेगा.. वह अपनी धुन में अपनी ज़िन्दगी को जिंदा-दिली से जीता है..
ऐसे लोग ही हैं जो समाज की सोच में बदलाव लाते हैं.. अगर आपको समाज में बदलाव लाना है तो उसके भीतर से नहीं वरन बाहर से लाना होगा..
यह प्रणाली प्रजातंत्र में बदलाव लाने के बिलकुल विपरीत है.. पर सत्य यही है..

जो समाज को ताक पे रख कर मानवता के लिए अच्छे काम करते हैं, कई सालों बाद वही समाज उसे पूजता है..
चाहे वो नेता हो, खिलाड़ी हो, गायक हो, नायक हो, सिपाही हो या कारोबारी..

समाज एक जकड़न है जिससे कुछ-कुछ लोगों को बाहर निकलकर इसकी दिशा को सही करते रहना होगा..
हर कोई इसके बाहर निकल गया तो फिर समाज टूट जाएगा जो कि मानवता के लिए हानिकारक है क्योंकि समाज के डर से कई जघन्य अपराध और कार्य नहीं होते हैं..
समाज का इस्तेमाल, समाज की भलाई के लिए करने से ही समाज निर्माण का सही अर्थ हमारे सामने उभरेगा और यह दुनिया एक बेहतर जगह बन सकेगी..