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मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

सरल या क्लिष्ट हिन्दी

तो हमारी एक दोस्त से बहस छिड़ गयी कि हिन्दी लिखने वालों को सरल लिखना चाहिए या हिन्दी की गुणवत्ता बरकरार रखते हुए क्लिष्ट?
उसे मेरी बहुत ही सरल और सुस्पष्ट हिन्दी लिखने पर आपत्ति थी ।

मैंने कहा कि - "देखो, मैं कोई भी लेख, लोगों के लिए लिखता हूँ । अगर लेख की कठिनता के कारण लोग कुछ समझ ही न पाएं तो फिर मेरे लिखने का क्या फायदा?"

उसने कहा - "अगर यही सोचकर सब लिखने लगें तो हिन्दी के समृद्ध इतिहास को कौन बरकरार रखेगा?"

मैंने कहा - "अगर बरकरार रखने के चक्कर में हिन्दी पढ़ने वाले ही गायब हो जाएं तो उसका ज़िम्मेदार कौन होगा? मेरा कहना बस इतना है कि जहाँ आज दुनिया में हिन्दी से कतराते लोगों की संख्या महंगाई के साथ हाथ में हाथ मिलाकर बढ़ रही है, वहां ज़रूरत ऐसे हिन्दी की भी है जो लोगों को तुरंत समझ में आये । जहाँ लोगों के पास अपने कमाए हुए रुपयों को व्यय करने का वक़्त नहीं है वहां क्लिष्ट हिन्दी समझ कर पढ़ने का समय कहाँ बचता है? अगर हिन्दी में रूचि ही ख़त्म हो जाए तो वो सारे जवाहराती हिन्दी लेखों को स्थान कूड़े में होगा जिसके जिम्मेवार हिन्दी कट्टरवादी होंगे । तुम जैसे लोग हिन्दी के स्तर को बरकरार रख सकते हैं और हम जैसे नौसिखिये उन लोगों का रुझान फिर से हिन्दी की तरफ कर सकते हैं जिन्हें हिन्दी से उदासीनता हो गयी है । हाथ से हाथ मिलाकर चलेंगे तो हिन्दी का उद्धार तय है नहीं तो कट्टरपंथियों ने दुनिया का भला नहीं किया है ।"

बात उसके समझ में आई या नहीं, नहीं पता । पर आपके क्या विचार हैं "सरल या क्लिष्ट हिन्दी" पर । ज़रूर रखें । जय राम जी की!