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सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मधुशाला की राह

नौकरी में रमे हुए राकेश को १ ही साल हुआ था.. अपने कॉलेज में सबसे अच्छे छात्रों में शुमार था और नौकरी में भी अव्वल..

जब अंटे में दो पैसे आने लगे तो मनोरंजन के साधन बदलने लगे.. जहाँ एक ढाबा ही काफी हुआ करता था दोस्तों के साथ, आज बड़े-बड़े होटलों में जाता था..
कभी दारु-सिगरेट नहीं पी पर कुछ ही दिन पहले दोस्तों के उकसाने पर शुरू कर दी.. सोचा कि अब आज़ाद है.. और दोस्तों ने कहा कि शराब पीने से दोस्ती बढ़ती है, रुतबा बढ़ता है... थोड़े पैसे भी हैं.. कुछ नया करते हैं.. कई बेहतर विकल्पों को दर-किनार करते हुए मधुशाला की राह चुनी..

कुछ ही महीनों में भारी मात्र में मय-सेवन होने लगा.. बेवक़ूफ़ दोस्तों ने उसे और उकसाया और अब तो वह पीकर हुड़दंग भी मचाता, आस-पास के लोग परेशान होने लगे..

एक दिन रात को लौटते वक़्त एक कार को अपनी बाईक से टक्कर दे मारी.. नशे में कहा-सुनी भी कर ली.. घर पहुँचने से कुछ पहले पीछे से बाईक पर उसी कार का ज़बरदस्त धक्का लगा और सुनसान रास्ते पर राकेश की लहू से लथपथ लाश अगली सुबह शहर भर में चर्चा में थी.. मधुशाला की राह का अंत हो चुका था..

राकेश के जनाज़े में वही लोग नदारद थे जो कुछ दिनों पहले उसके साथ बैठकर पीते थे.. वो मधुशाला में बैठे, किसी और राकेश का इंतज़ार कर रहे थे..