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सोमवार, 17 दिसंबर 2012

भौतिकवाद की दोस्ती

बात ज्यादा पुरानी नहीं है, या यूँ कहें की ज़हन में तरोताज़ा है।

कॉलेज का प्रथम वर्ष समाप्ति पर था। कई नए दोस्त बने थे, उनमें से धीरज भी एक था।
प्रथम सेमेस्टर की समाप्ति पर मैं घर से कीबोर्ड (पियानो) खरीद लाया था क्योंकि हारमोनियम के बाद अब यह सीखने की बड़ी इच्छा थी।

एक दफे मैं और धीरज क्लास से लौट रहे थे और तभी मैंने उसकी संगीत रूचि को देखते हुए बताया कि मैं घर से पियानो ले कर आया हूँ। वह बहुत खुश हुआ और उसके बारे में पूछने लगा। मैंने भी ख़ुशी-ख़ुशी उसे जानकारी दी कि कौन सी कंपनी का है और कौन सा मॉडल है, वगैरह-वगैरह।

मेरे रूम के पास पहुँचते हुए एक दूसरे को कल तक के लिए अलविदा कह रहे थे कि उसने कहा - "मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पास पियानो है, नहीं तो हम और भी बेहतर दोस्त हो सकते थे।" और इतना कह कर वह आगे हो लिया।

कुछ देर तक मैं स्तब्ध सा खड़ा रहा और सोचता रहा कि आजकल दोस्ती भौतिकता की गुलाम हो गयी है? किसी के पास किसी वस्तु का होना, न होना दोस्ती की डोर को मज़बूत या कमज़ोर करता है? ये हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं?

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो वह वाक्या याद आ जाता है क्योंकि हर जगह आजकल भौतिकवाद ही दोस्ती का मापदंड हो चुका है। "भौतिकवाद की दोस्ती" इंसानों को दीमक की तरह खोखला करने में कामयाब नज़र आ रही है। कडुवा, पर सच।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अपने

सोचा करता था वह "अपने" लोगों के बारे में
वही जिनको वो कई रिश्तों से पहचानता था
माँ, पिता, भाई, बहन, चाचा, दोस्त, जिगरी दोस्त, चड्डी दोस्त..

"अपने"
यह शब्द भेदती थी उसे कभी..
क्या यह शब्द दुनिया का छलावा नहीं है?
इस शब्द ने कईयों की दुनिया नहीं उजाड़ी है?
पर
फ़िर
क्या इन्हीं "अपनों" ने उसकी ये ज़िंदगी हसीन नहीं बनाई है?
क्या वही ये "अपने" नहीं हैं
जो उसके सुख-दुःख में,
उसके गिरते क़दमों
और
कन्धों को सहारा देते रहे हैं?

पर आज उसे "भय" लग रहा है
आज उसके दिल से खून का कतरा सूखा जा रहा है
आँखों का पानी शरीर में ही कहीं सूख रहा है

क्यों..
आज न जाने क्या ख्याल आया
क्या ये "अपने" उसका साथ निभाएँगे?
तब
जब
पंचतत्व
उसके खून के हर कतरे को,
शरीर की हर बूँद को,
रूह के हर कण को,
अंगों की हर सांस को,
अपनी ओज में सुखाएगा
आखिरी आवाज़ लगाएगा?

उस दिन शायद उसे "अपने" छलावा लगेंगे
वो उसका साथ वहीँ छोड़ देंगे
क्या यह ज़िंदगी का छलावा नहीं है?
जो की फिल्म की चरमावस्था (क्लाईमैक्स) को
दुखांत (ऐन्टी-क्लाईमैक्स) कर देगा?
जिनके लिए पूरी ज़िंदगी जी है
बस वही नहीं मिलेंगे..

"अपनों" को "अपना" कहना
क्या उस दिन इस शब्द के खिलाफ नहीं हो जाएगा?
यह सोच कर वह आज घबरा रहा है
पर
फ़िर
जब तक सच्चाई का पता नहीं चलेगा
तब तक इस छलावे को जीना पड़ेगा
यह छलावा जिसे हम "अपने" कहते हैं
आज यही सच्चाई है..
आज यही ज़िंदगी है..

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

सामंजस्य

यह आलेख जनसत्ता में ३ दिसम्बर को छपा था। इ-संस्कार यहाँ पढ़ें।

"सामंजस्य" अर्थात 'तालमेल', एक ऐसा शब्द है जिसकी सही पहचान और सही परख हम-आप करने से चूके जा रहे हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो इस श्रृष्टि के पूरे वजूद को अपने अंदर समेटे हुए है। पर इस भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी (ज़िन्दगी? शायद यह शब्द अब बदनामी की राह पर है) में विरले ही हैं जो इस बात पर ध्यान भी दे रहे हों।

बचपन से हर जगह सामंजस्य देखा है। घर पे, स्कूल में, मोहल्ले में.. लगभग हर जगह। और जहाँ नहीं देखा, वहाँ तबाही और अराजकता!

हर सुख का कारण कौन? - सामंजस्य!
हर दुःख का कारण कौन? - सामंजस्य!
एक जगह सामंजस्य बना हुआ है और दूसरी जगह बिगड़ा हुआ।

जिस दिन घर पे माता-पिता का सामंजस्य बिगड़ता है, उस दिन घर, घर नहीं रहता। उनके आपसी सामंजस्य से ही मकान घर बना है। जिस दिन छात्र-शिक्षक का सामंजस्य बना रहता था, उस दिन ज्ञान खूब लुटाया और बटोरा जाता था!

आज से कुछ साल पहले तक जब हम कार्य में धीमे और दिमाग में तेज हुआ करते थे, पृथ्वी का सामंजस्य बना हुआ था। फ़िर? फ़िर क्या हुआ? हमारे कार्य बहुत तेज होने लगे और हमारे दिमाग स्थूल होते चले गए। पृथ्वी का सामंजस्य बिगड़ गया। सुनामी, भूकंप तो पहले भी आते थे पर बिन मौसम बरसात, बेवजह ठण्ड और गायब ऋतू, यह सब तो बिगड़ते सामंजस्य की ही देन है। हमारी लोलुपता और नीच सोच ने पेड़ों पर गाज गिराई और उनकी जगह कंक्रीट के घर..ओह घर नहीं, 'मकान' ठूंस दिए गए।

पर यह तो सामंजस्य बिगड़ने का बहुत बड़ा स्वरुप है। अगर उसका बहुत सरल उदाहरण दूं तो यह कहूँगा कि जिस दिन हम अपने शरीर को मद-सेवन करवाते हैं उस दिन शरीर, दिमाग सब बेढंगा हो जाता है और अचरज की बात यह है कि इस बे-सिर-पैर की क्रिया को लोग "हाई" होना कहते हैं जबकि शरीर तो उसी समय अपने सबसे निचले स्तर पर काम कर रहा होता है।

जब दो प्रेमियों के बीच प्यार बराबर न हो तो कुछ ही दिनों में प्रेम फीका पड़ जाता है पर अगर एक-दूसरे की सोच और भावों का सही मिश्रण हो तभी वह जन्मांतर का प्रेम कहलाता है।

ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इंसान हमेशा ही जीतता रहे। जो इंसान हारता नहीं, वह विजेता कहला ही नहीं सकता। जब हार और जीत का सही सामंजस्य जब है तो विजेता बनते है, सदी के धुरंधर!

एक अटपटी लगने वाली बात कहूँ तो अगर चोर न हों तो पुलिस का क्या काम? संसार में इस बात का भी सामंजस्य है कि अच्छे और बुरे दोनों लोगों का होना बहुत ज़रुरी है नहीं तो अच्छे को बुरे से भिन्न करने का मापदंड कहाँ रह जाएगा?

हर कार्य में सामंजस्य की ज़रूरत है। गरीब-अमीर, मस्ती-शान्ति, काम-परिवार, दिखावा-छुपावा, खेल-आराम, क्रोध-हंसी, लगाव-अलगाव और जीवन के अभिन्न आयामों में भी तालमेल बैठाने की कोशिश जब तक नहीं करेंगे हम सब परेशान, निराश, हताश और हारे हुए रहेंगे।

जिस दिन हम अपनी सोच में सामंजस्य का बीज बो देंगे, उस दिन से हम खुद में और अपने आस पास खुशी की बाढ़ देखेंगे। और यह बहुत आसान है। बस हर दिन "खुद" को, खुद की "सोच" को कुछ समय दें, एकांत में। इस जीवन की आपा-धापी, चकाचौंध और भेड़-चाल से खुद को अलग करें। पहले अपनी सोच और फ़िर अपने जीवन में सामंजस्य का समावेश करें, तभी हम ज़िन्दगी को जिंदादिली से और भरपूर जी सकेंगे।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

भ्रष्ट ज्ञान

यह लेख ६ अक्टूबर २०१२ को जनसत्ता में छपा था। ई-पेपर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें। (संतोष त्रिवेदी जी का फिर से एक बार धन्यवाद!)

"ज्ञानी", एक ऐसा शब्द है जिससे हम-आप खुद को पढ़े लिखे समझने वाले लोग समझते हैं कि अच्छी तरह से समझते हैं, भांपते हैं। पर क्या सच में आप इतने ज्ञानी हो गए हैं कि उसका अर्थ भली-भांति समझते हैं? ये बहुत ही गहन शब्द और विषय है जो कई हफ़्तों से मेरे मन-मंथन को छलका रहा है।

बचपन में सुना था "अर्ध ज्ञान बहुत खतरनाक होता है"। इतने से जीवनकाल में मैंने यह काफी जगह देख लिया है कि आधा ज्ञान इंसान को पूरा खा सकता है। और इंसान तो क्या, पूरे समाज, प्रजाति तकातक को ख़त्म कर सकता है।

और पता नहीं कहाँ या कैसे पिछले कुछ दिनों से एक और बात मन में घर कर गयी है "ज्ञान भ्रष्ट करता है"। शायद आपने सुना भी हो, पर यह बात भी सटीक है कि अधूरा ज्ञान और अधिक ज्ञान, दोनों ही किसी भी इंसान के लिए हानिकारक हैं।

अभी कुछ दिनों पहले मैं एक दोस्त के साथ किसी संगीत कार्यक्रम में गया। काफी अच्छा लग रहा था पर मुझे कहीं कहीं सुर छूटते हुए नज़र आ रहे थे। पर मेरा दोस्त संगीत में मगन था। उसे ये त्रुटियाँ समझ नहीं आ रही थी और इसी वजह से वह खुश था। चूँकि मैं शास्त्रीय संगीत सुनता और सीखता हूँ, इसलिए मेरा मन विचलित था और वहीँ मेरा दोस्त उसी संगीत में खुश! तब मुझे एहसास हुआ कि उसके संगीत में कम ज्ञान होने से फायदा हुआ और वह खुश है और मैं थोड़ा-बहुत जानकार भी उसी संगीत से उतना खुश नहीं!

एक और छोटा सा उदाहरण देता हूँ। जब हम छोटे बच्चे थे, तब कोई भी छोटी सी बात, चाहे वो किसी चीज़ का अचानक से गिरना या किसी अपने का अजीब सा चेहरा बनाना, हमारे चेहरे पे कितनी हँसी लाती थी। और आज एक पल है जब हमें हँसने के लिए भी बहाने ढूँढने पड़ते हैं। क्या यह ज्ञान नहीं है जिसने हमारी हँसी को भ्रष्ट किया है? चीज़ों को समझने में हम माहिर हो गए हैं, पर क्या जीने में महारत कभी हासिल कर पाएंगे?

ज्ञान पाना आसान है पर उसको खोना बहुत ही मुश्किल। दिन-प्रतिदिन हमारी समझ तो बढ़ रही है पर हमारी सोच घट रही है। ज्ञान ने हमारे रहन-सहन को इतना भ्रष्ट किया है कि ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी आम बातें भी आजकल हमारे समझ के परे हो गयी हैं। कभी कभी सोचता हूँ कि हमारी शिक्षा पद्धति हमें जीने के अलावा सब कुछ सिखा रही है।

क्या हमें ज़रूरत है एक नयी सोच की? एक नयी पद्धति की? एक नयी दिशा की? क्या हम कभी ऐसा ज्ञान हासिल कर पाएंगे जो हमारी मूल मानवता, मूल सोच-विचार, मूल भावनाओं को नष्ट और भ्रष्ट ना करे?

यह सवाल है आपके-मेरे ज्ञान के लिए, भ्रष्ट ज्ञान के लिए जिसका ढिंढोरा हम दुनिया भर में बजाते फिरते हैं। जिस दिन इस सवाल का उत्तर हम पा लेंगे, सही मायनों में उसी दिन हम "ज्ञानी" शब्द का अर्थ समझने में सफल होंगे।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

संस्कार

रमेश बस स्टॉप पे खड़ा बस का इंतज़ार कर रहा था। दिन काफी व्यस्त रहा था ऑफिस में।

स्टॉप से थोड़ा आगे बाईं ओर 2 मोहतरमाएं खड़ी थीं। एक के सलवार-दुपट्टे और एक के जींस-टॉप से समझ आ गया कि ये माँ-बेटी हैं और ज़रूर ही अपनी कार का इंतज़ार कर रही हैं। और दोनों के पहनावे से अमीरी टपक रही थी। रमेश सीधा-साधा मध्यम-वर्गीय इंसान, एक आह तो उठी मन के किसी कोने में, ये धन-दौलत का नज़ारा देख कर।

इतने में कहीं से एक 6-7 बरस की लड़की आई। बिलकुल मैले कपड़े ग्रीस लगे, बाल बिखरे हुए फंसे हुए झाड़ की तरह, नंगे पैर और खरोंचें, धंसी हुई आँखें और भीख मांगते हाथ।

उसका हाथ बढ़ता हुआ लड़की के जींस को लग गया।
इतने में लड़की चीख उठी "हट गन्दी, ममा देखो ना पार्टी के लिए पहने हुए कपडे गंदे कर दिए।"
ममा भी बोली पड़ी "भाग यहाँ से गंदी कहीं की। कपड़े गंदे कर दिए सारे। अब बदलने पड़ेंगे।"
इतना कह कर दोनों कुछ सरक से लिए, उस लड़की से दूर।

1 मिनट भी नहीं हुआ था कि बस स्टॉप पर खड़ी एक और 6-7 बरस की लड़की आई और उस गरीब लड़की को 2 लॉलीपॉप थमा कर पीछे अपनी माँ के पास चली गयी। रमेश ने देखा कि उसकी माँ ने बच्ची का गाल सहला दिया जैसे कह रही हो "शाबास"

आस पास खड़े लोग हैरत में थे (पर अमीर मोहतरमाएं अभी भी अपनी अमीरी में व्यस्त थी और अपने कपड़े  झाड़ रही थी) और रमेश सोच रहा था "माँ-बाप का, बचपन से ही अपने बच्चों में अच्छे संस्कार देना कितना ज़रूरी है, यह बात आज उसे व्यावहारिक तौर पर देखने को मिल गया था।"

वह खुश था अच्छाई का बुराई को खदेड़ते देख। संस्कार का अमीरी को पटकते देख। एक छोटी बच्ची को अच्छा बनते देख।

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

त्यौहार, मौज-मस्ती, ज़िन्दगी!

त्यौहारों का मौसम फिर से शुरू हो रहा है और हाँ छुट्टी का मौसम भी.. :)
बारिश के अकाल की तरह छुट्टियों का यह अकाल हर नौकरी-पेशा इंसान को तंग करता है..

अब त्यौहारों का मौसम भी एक ऐसे त्यौहार से जिसकी हमारी समाज में जड़ें बहुत गड़ी हुई हैं और जो समय के साथ-साथ अपने रंग बदलता रहता है और यही कारण है कि यह समाज के हर वर्ग, हर उम्र को उतना ही पसंद आता है..

सभी भाइयों और बहनों को रक्षाबंधन की शुभकामनाएं.. मुझे बधाई बाद में दीजियेगा क्योंकि माहेश्वरी समाज की राखी २० दिन बाद होती है (कारण ढूँढने की कोशिश की है पर अभी तक सफल नहीं हुआ हूँ)
मैं समझता हूँ कि हर प्रथा और प्रचालन के पीछे कोई कारण होता है और बहुत ही वैज्ञानिक कारण | हमारे पूर्वज हमसे काफी आगे थे | विज्ञानं में भी और समझदारी में भी | पर आज समाज में हम अंधाधुंध प्रथाओं को अपना अभिन्न अंग बना रहे हैं जो कि बहुत सही नहीं है | ज़रूरत है हर कार्य के पीछे छुपे राज़ को समझने की और उसे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाने की |

दोस्ती दिवस भी २ दिन पहले ही गया है | क्यों मनाते हैं यह तो आपको विकिपीडिया पढ़ने पर पता चल जाएगा | दरअसल ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनी, हॉलमार्क ने यह प्रथा अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए शुरू की थीजिसका विरोध हुआ और यह प्रथा बंद हो गयी | पर पिछले कुछ सालों में इस दिन ने फिर से लोगों के दिलों-दिमाग को अपनी आगोश में लिया और आज यह फिर से एक प्रचलित प्रथा बन चुकी है | खैर मैं तो समझता हूँ कि हम भारतीय ख़ुशी के मौकों को छोड़ते नहीं हैं | यही हमें बाकी सब देशों से अलग रखता है | हम बहाने ढूंढते हैं खुश रहने के इसलिए हम जिंदादिल हैं और आशा है कि हम इसी जिंदादिली से ज़िन्दगी जीयेंगे पर हाँ इसके लिए अपने बटुए में रखे पैसों से ज्यादा खर्च ना करें तो ही बेहतर है :) | पैसों से भौतिक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं पर असली ख़ुशी तो हमें अपने दोस्तों के साथ ही मिलेगी |

अब यह गया नहीं कि २ दिन बाद जन्माष्टमी है यानी एक और दिन जिंदादिली का! फिर कृष्ण तो देवों में सबसे नटखट, चुलबुले और सर्वगुण-संपन्न माने गए हैं | क्यों न उसी राह पर चलते हुए हम भी ऐसी ही ज़िन्दगी जीयें? यही इच्छा है कि आप भी मक्खन का स्वाद ले पाएं (मिश्रित ही सही :P)

जन्माष्टमी के बाद स्वतंत्रता दिवस! देश भारतीयता में लीन हो जाएगा या फिर छुट्टी मनाएगा | आप स्वतः यह निर्णय लें की आप कौन से कटघरे में खड़े होना चाहते हैं | वैसे अगर आप देशभक्ति के कुछ गीत गुनगुनाना चाहते हैं तो उनके बोल यहाँ से देख सकते हैं |

स्वतंत्रता दिवस के बाद आ रहा है ईद-उल-फ़ित्र और यह दिन रमज़ान का आखिरी दिन होगा और मुस्लिम भाई रोज़ा तोड़ते हुए व्यंजनों का स्वाद और नए कपड़ों से सराबोर होंगे और अपनी जिंदादिली पेश करेंगे |

कहने का अर्थ ये है कि भैया अब मौसम शुरू हो गया है मस्ती का और खुमार चढ़ रहा है सबका दिल! पर हमारी आपको हिदायत है कि दिल थाम के और संभाल के बैठिये क्योंकि पिक्चर तो अभी बाकी है गुरु!
ज़िन्दगी की परेशानियों को कुछ देर के लिए भूल जाने के लिए ही यह त्यौहार बनाए गए हैं और अगर हम इन सब त्योहारों का आनंद नहीं उठा रहे हैं तो मनन करने की सख्त आवश्यकता है |

कल की खबर नहीं, परसों का भरोसा नहीं,
सोच रहा है बरसों बाद होगा क्या?
इस पल को यूँ सोच-सोच बर्बाद कर रहा है तू,
तू क्यों न इस "पल" ही को जीता?

बुधवार, 11 जुलाई 2012

बदलाव का समय

करीब करीब 2 महीने हो गए हैं पोस्ट किये हुए । पता नहीं कई विषय भी दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते रहे पर उंगल-दबाव-यंत्र (की-बोर्ड) के ज़रिये ब्लॉग पर नहीं चिपक पाए ।
हर एक की ज़िन्दगी में समय-समय पर बदलाव आते रहते हैं और फिलहाल मैं भी कुछ ऐसे ही बदलाव के दौर के थपेड़ों को झेलता हुआ उस अंतिम लहर का इंतज़ार कर रहा हूँ जब बदलाव का समंदर कुछ समय के लिए शांत हो जाएगा ।
कई अच्छे अनुभव और कुछ खट्टे अनुभवों के अनुभव से मेरी ज़िन्दगी अच्छी गुज़र रही है और मेरे भावी ज़िन्दगी के लिए महत्वपूर्ण रहेंगे ।

एक, आपकी सहायता करने वाले लोग आपको दुनिया में हर जगह मिलेंगे पर अपने को उनकी सहायता के काबिल बनाने में अथक परिश्रम और संयम की ज़रूरत है । चाणक्य ने सत्य कहा है कि कोई भी दोस्ती निःस्वार्थ नहीं होती । उसमें कोई न कोई स्वार्थ ज़रूर छिपा होता है । यह दिल को बुरा पर दिमाग को सत्य लगने वाला विचार है चाहे आप अपने किसी भी दोस्त को इस तराज़ू में तोल लें ।
खैर ज़िन्दगी में मिल-बाँट कर ही जीना होता है । ले कर तो हम कुछ नहीं आये थे पर दे कर जाने की क्षमता हर एक की अपनी सोच और समझ पर है ।
जब आप एक ऐसे दौर से गुज़र रहे होते हैं जब ज़िन्दगी बदलाव के लिए तैयार है और आपके आसपास जो कल तक केवल जान-पहचान रखने वाले लोग थे, आज हाथ आगे बढ़ाकर सहायता करने को तत्पर हैं, यह देख कर तसल्ली होती है कि ज़िन्दगी जीने में ज्यादा गलतियां नहीं की हैं और जैसा बीज बोया है, वैसा ही फल उपज रहा है ।
रिश्तों को तोडना बहुत आसान है । मेरे ख्याल से बहुत ज्यादा ही आसान है । पर उन्हें निभाना ज़िन्दगी की सबसे बड़ी कला है । जो यह कर पा रहे हैं वे सबसे खुशनसीब और काबिल-ए-तारीफ़ हैं!

दो, बदलाव के समय का समय एक ऐसा समय होता है जब ज़िन्दगी ठहर सी जाती है और लगने लगता है कि कुछ हो नहीं रहा है पर मेरे ख्याल से इसे इस तरह लेना चाहिए जैसे एक गुलेल काम करता है । जब गुलेल छूटने वाला होता है तो खिंचता-खिंचता वह अपने आखिरी बिंदु पर जा कर कुछ देर रुक जाता है और फिर बड़ी तेज़ी से छूटता है! बस यही ज़िन्दगी है । समुद्र अभी शांत है क्योंकि आगे तूफ़ान उठने वाला है जिसका सामना करने के लिए अन्दर की उर्जा को संगठित और संग्रहित करना पड़ेगा । अगर इस ठहराव को हम नकारात्मक मान लेते हैं तो यह प्रतिविस्फोट करेगा और फिर ज़िन्दगी के मोड़ को मोड़ने की शक्ति हमारे हाथों से निकल कर किसी के हाथ भी जा सकती है ।
इसलिए ज़रूरी है कि अपने आस-पास ऐसे ही लोगों का घेराव रखें जो आपको हर मोड़ पर उत्साहित करें और सही दिशा के लिए मार्गदर्शन करने की क्षमता भी रखते हों । ज़रूरी नहीं कि ये काम केवल एक ही व्यक्ति कर पाए । हो सकता है कि आपको इसके लिए कई व्यक्तियों का सहारा लेना पड़े पर वह लेने में कभी चूके नहीं ।
पर इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए कि अपने परेशानियों को आम न करें क्योंकि 99 प्रतिशत लोग केवल कहानी बनाने और सुनने में ही दिलचस्पी रखते हैं । और आजकल अंतरजाल के जरिये कई लोग केवल अपनी परेशानियों का ही बखान करते रहते हैं जिनकी बातें पढ़-सुनकर हंसी आती है और साथ ही साथ तरस भी । मेरे ख्याल से ऐसे लोग मखौल के ही लायक हैं क्योंकि सामाजिक अंतर्जालीय तंत्र का सही उपयोग और सीमाओं का जो ध्यान नहीं रखते हैं उनसे बड़ा बेवक़ूफ़ कोई नहीं है ।

खैर काफी बातें हैं कहने-सुनने की पर फिलहाल मैं इसी बात से खुश हूँ कि मैं कुछ समय अपने ब्लॉग के लिए भी निकाल पाया हूँ जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार था । आशा है कि कल सुबह होगी, एक नयी सुबह । काली, घनेरी, बरसाती, तूफानी रात के बाद की एक शानदार सुबह और हम-आप मिलेंगे उसी सुहानी सूरज की रोशनी में किसी पार्क में टहलते हुए :)

गुरुवार, 17 मई 2012

जनसत्ता में आलेख

पहली बार "जनसत्ता" में आलेख छपा "समाज की गति" शीर्षक से |
१४ मई २०१२ का अखबार देखिएगा | बड़ी ख़ुशी हुई |
अब पहली बार इतने बड़े समाचार पत्रिका में आलेख छपे तो कितनी ख़ुशी होगी, इसका अंदाजा काफी लोगों को होगा | पर इससे ज्यादा ख़ुशी इस बात कि की संतोष त्रिवेदी जी ने कई महीनों पहले मुझसे जनसत्ता के लिए आलेख माँगा था पर उस समय "लघु कथा" का मेरे ब्लॉग पर बोलबाला था तो उन्होंने कहा कि थोडा बड़ा लेख लिखूं | मैंने कहा कि कोशिश करुना और पिछला लेख सामाजिक खेल थोडा विस्तृत लेख था समाज और हमारी सोच पर |
संतोष जी ने चुपके से यह आलेख जनसत्ता में भेज दी और १४ मई की सुबह मुझे मेल किया कि आज के अंक में मेरा आलेख भी छपा है | सच कहूँ तो सुबह-सुबह यह मेल पढ़ कर मन बेहद खुश हो गया!
मैं तहे दिल से धन्यवाद दूंगा संतोष जी का जिन्होंने मेरे लेख को जनसत्ता में जगह दिलवाई |
आप वह लेख ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं और नीचे दिए गए चित्र में भी देख सकते हैं |

धन्यवाद!

मंगलवार, 8 मई 2012

सामाजिक खेल

समाज, एक ऐसा शब्द जो दर-ब-दर हमारे आस पास घूमता है.. मंडराता है.. डराता है.. धमकाता है.. बांधे रखता है..
इस शब्द से रिश्ता ज़िन्दगी के पहले अक्षर से जुड़ जाता है..
हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कैसे उठे-बैठते हैं, कैसे चलते हैं, क्या कार्य करते हैं, किससे मिलते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ नहीं जाते हैं, इत्यादि.. सब कुछ समाज ही निर्धारित करता है..
हम स्वयं तो कुछ हैं ही नहीं.. हम हमारी सोच को समाज के अनुसार निर्धारित करते हैं न कि अपनी इच्छाओं और कार्य-प्रबलता के अनुसार..

कुछ भी निर्णय लेने से पहले हमारे ज़हन में स्वतः ही यह ख्याल आता है कि "समाज क्या कहेगा? समाज क्या सोचेगा?"
समाज किसी एक इंसान का संबोधन नहीं है जो कि बहुत शक्तिशाली हो या अजेय हो.. वह तो हर आम-इंसानों से बना एक कुनबा है..
पर इस कुनबे से सब डरते हैं.. भयभीत रहते हैं..

समाज हम सबको एक-दूसरे से जोड़ता है पर भीतर ही भीतर हमारे दिली निर्णयों से तोड़ता भी है..
इसका भय ही है जो न जाने कितने लोगों की तमन्नाओं को राख कर देता है..
भविष्य और जिन्दगियां समाज के बहाव के अनुसार निश्चित की जाती हैं..
माँ-बाप कहते हैं कि मेरा बेटा इंजिनियर बनेगा या डॉक्टर बनेगा क्योंकि समाज में आजकल यही चलन है..
माँ-बाप कहते हैं कि मेरी बेटी अपने समाज में ही विवाह करेगी क्योंकि समाज में आजकल यही चलन है..
यह चलन कौन चलाता है?
कोई नहीं.. मैं नहीं, आप नहीं, कोई और नहीं..
और सभी कोई.... मैं, आप और हर कोई..

मैं यह व्यवसाय कर सकता हूँ कि नहीं, यह समाज की सोच के अनुसार सोचना पड़ता है..
मैं फलाने परिवार से जोड़ बना सकता हूँ कि नहीं, यह भी समाज ही निर्धारित करता है..
अनजाने में ही सही पर समाज ही एक मात्र शक्तिशाली प्रणाली है जो यह दुनिया चलाती है..

समाज और धर्म का बड़ा ही गहरा नाता है.. दोनों ने मनुष्य को अच्छे काम करने से रोका है.. और बुरे काम करने से भी..
पर दुर्भाग्य यह है कि आज समाज चुनिंदे लोगों के इशारों और हसरतों पे चलती है.. पैसा समाज को चला रहा है... मूलभूत मान्यताएं नहीं..
इसे समाज नहीं कहा जा सकता पर कहना पड़ रहा है.. दुर्भाग्यवश..

जो इस समाज से कभी नहीं डरते और अपने सारे निर्णय अपने दिल-ओ-दिमाग से ही लेते हैं वह इस भेड़-चाल से बिलकुल जुदा हैं..
उसे एक राई फर्क नहीं पड़ता कि समाज क्या सोचेगा या करेगा.. वह अपनी धुन में अपनी ज़िन्दगी को जिंदा-दिली से जीता है..
ऐसे लोग ही हैं जो समाज की सोच में बदलाव लाते हैं.. अगर आपको समाज में बदलाव लाना है तो उसके भीतर से नहीं वरन बाहर से लाना होगा..
यह प्रणाली प्रजातंत्र में बदलाव लाने के बिलकुल विपरीत है.. पर सत्य यही है..

जो समाज को ताक पे रख कर मानवता के लिए अच्छे काम करते हैं, कई सालों बाद वही समाज उसे पूजता है..
चाहे वो नेता हो, खिलाड़ी हो, गायक हो, नायक हो, सिपाही हो या कारोबारी..

समाज एक जकड़न है जिससे कुछ-कुछ लोगों को बाहर निकलकर इसकी दिशा को सही करते रहना होगा..
हर कोई इसके बाहर निकल गया तो फिर समाज टूट जाएगा जो कि मानवता के लिए हानिकारक है क्योंकि समाज के डर से कई जघन्य अपराध और कार्य नहीं होते हैं..
समाज का इस्तेमाल, समाज की भलाई के लिए करने से ही समाज निर्माण का सही अर्थ हमारे सामने उभरेगा और यह दुनिया एक बेहतर जगह बन सकेगी..

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

सरल या क्लिष्ट हिन्दी

तो हमारी एक दोस्त से बहस छिड़ गयी कि हिन्दी लिखने वालों को सरल लिखना चाहिए या हिन्दी की गुणवत्ता बरकरार रखते हुए क्लिष्ट?
उसे मेरी बहुत ही सरल और सुस्पष्ट हिन्दी लिखने पर आपत्ति थी ।

मैंने कहा कि - "देखो, मैं कोई भी लेख, लोगों के लिए लिखता हूँ । अगर लेख की कठिनता के कारण लोग कुछ समझ ही न पाएं तो फिर मेरे लिखने का क्या फायदा?"

उसने कहा - "अगर यही सोचकर सब लिखने लगें तो हिन्दी के समृद्ध इतिहास को कौन बरकरार रखेगा?"

मैंने कहा - "अगर बरकरार रखने के चक्कर में हिन्दी पढ़ने वाले ही गायब हो जाएं तो उसका ज़िम्मेदार कौन होगा? मेरा कहना बस इतना है कि जहाँ आज दुनिया में हिन्दी से कतराते लोगों की संख्या महंगाई के साथ हाथ में हाथ मिलाकर बढ़ रही है, वहां ज़रूरत ऐसे हिन्दी की भी है जो लोगों को तुरंत समझ में आये । जहाँ लोगों के पास अपने कमाए हुए रुपयों को व्यय करने का वक़्त नहीं है वहां क्लिष्ट हिन्दी समझ कर पढ़ने का समय कहाँ बचता है? अगर हिन्दी में रूचि ही ख़त्म हो जाए तो वो सारे जवाहराती हिन्दी लेखों को स्थान कूड़े में होगा जिसके जिम्मेवार हिन्दी कट्टरवादी होंगे । तुम जैसे लोग हिन्दी के स्तर को बरकरार रख सकते हैं और हम जैसे नौसिखिये उन लोगों का रुझान फिर से हिन्दी की तरफ कर सकते हैं जिन्हें हिन्दी से उदासीनता हो गयी है । हाथ से हाथ मिलाकर चलेंगे तो हिन्दी का उद्धार तय है नहीं तो कट्टरपंथियों ने दुनिया का भला नहीं किया है ।"

बात उसके समझ में आई या नहीं, नहीं पता । पर आपके क्या विचार हैं "सरल या क्लिष्ट हिन्दी" पर । ज़रूर रखें । जय राम जी की!

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मधुशाला की राह

नौकरी में रमे हुए राकेश को १ ही साल हुआ था.. अपने कॉलेज में सबसे अच्छे छात्रों में शुमार था और नौकरी में भी अव्वल..

जब अंटे में दो पैसे आने लगे तो मनोरंजन के साधन बदलने लगे.. जहाँ एक ढाबा ही काफी हुआ करता था दोस्तों के साथ, आज बड़े-बड़े होटलों में जाता था..
कभी दारु-सिगरेट नहीं पी पर कुछ ही दिन पहले दोस्तों के उकसाने पर शुरू कर दी.. सोचा कि अब आज़ाद है.. और दोस्तों ने कहा कि शराब पीने से दोस्ती बढ़ती है, रुतबा बढ़ता है... थोड़े पैसे भी हैं.. कुछ नया करते हैं.. कई बेहतर विकल्पों को दर-किनार करते हुए मधुशाला की राह चुनी..

कुछ ही महीनों में भारी मात्र में मय-सेवन होने लगा.. बेवक़ूफ़ दोस्तों ने उसे और उकसाया और अब तो वह पीकर हुड़दंग भी मचाता, आस-पास के लोग परेशान होने लगे..

एक दिन रात को लौटते वक़्त एक कार को अपनी बाईक से टक्कर दे मारी.. नशे में कहा-सुनी भी कर ली.. घर पहुँचने से कुछ पहले पीछे से बाईक पर उसी कार का ज़बरदस्त धक्का लगा और सुनसान रास्ते पर राकेश की लहू से लथपथ लाश अगली सुबह शहर भर में चर्चा में थी.. मधुशाला की राह का अंत हो चुका था..

राकेश के जनाज़े में वही लोग नदारद थे जो कुछ दिनों पहले उसके साथ बैठकर पीते थे.. वो मधुशाला में बैठे, किसी और राकेश का इंतज़ार कर रहे थे..

रविवार, 29 जनवरी 2012

"भाग डी.के.बोस" का सरल हिन्दी अनुवाद

यह लेख मैंने काफी पहले लिखा था पर पोस्ट नहीं किया था ।
पहले ही बता दूं कि गीत की गहराई को समझते हुए इसके विश्लेषण को आराम से पढ़ें ।
पोस्ट की लम्बाई पर मत जाओ, अपना समय लगाओ :)

Daddy मुझसे बोला, तू गलती है मेरी
तुझपे जिंदगानी guilty है मेरी
साबुन की शक़ल में, बेटा तू तो निकला केवल झाग
झाग झाग
भाग-भाग डी.के.बोस...

डी.के.बोस, हिन्दी फिल्म इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाने वाला और गाया जाने वाला गीत है..
गायक ने बेहतरीन तरीके से अपने मन की और भारत के करोड़ों नौजवानों के मन की भड़ास को बेहद ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है जिसका सेंसर बोर्ड भी लोहा मान चुकी है..
इस गीत से साफ़ पता चलता है कि गायक को डी.के.बोस, डी.के.बोस बार-बार बोलने की बिमारी है और इस बिमारी के कारण उन्हें यहाँ वहां भागते रहना पड़ता है...

पंक्तियों की शुरुआत में गायक अपने पूजनीय पिताश्री का सम्मान करते हुए, अपने और अपने पिताश्री के बीच हुए सौहार्द भरे वार्तालाप को बयां कर रहा है...
उसके पिता, उसे बिलकुल पाजी मानते हैं और कहते हैं कि जिंदगी में उन्होंने दो गलती की है.. १) शादी करके और २) उसे पैदा कर के..
शादी करके गलती करने वाली बात को गायक ने बेहतरीन तरीके से शब्दों के बीच छुपाया है और उसे कोई विरले ही समझ और रसास्वादन कर सकते हैं.. अर्थात उसके रस को पहचान सकते हैं..
तत्पश्चात, पिताश्री, जिसे गायक डैडी कहकर संबोधित कर रहा है (जिससे उसके उच्च कुल में पैदा होना का प्रमाण मिलता है), उसकी उपमा रोजमर्रा में आने वाली चीज़ों से कर रहे हैं..
वो कहते हैं कि तू उसी लोकल साबुन की तरह है जो सस्ता होता है और देश में बढ़ रही महंगाई के कारण खरीदना पड़ रहा है और उसके इस्तेमाल के बाद उनके मन में ग्लानि हो रही है क्योंकि इस लोकल साबुन से केवल झाग ही निकलता है पर शरीर के गन्दगी को साफ़ करने में यह असक्षम है... ठीक उसी तरह जिस तरह उनका पाजी बेटा कोई भी काम करने में असक्षम है...
इसके बाद डैडी उसे भागने को कहते हैं और उन्होंने अपने बेटे का उपयुक्त नाम "डी.के.बोस" रख कर अपना काम आसान कर दिया है क्योंकि जब वो इसका बार-बार जाप करते हैं तो जो वो असल में कहना चाहते हैं, वो बाहर आ जाता है... पर चूँकि भारतीय संस्कृति में अपशब्दों का अपने बच्चों के सामने प्रयोग करने का कोई प्रयोजन नहीं है, इसलिए ऐसे नामों के सहारे, आने वाली पीढ़ी के बाप शिक्षा ले सकते हैं और अपने दिल की भड़ास बेहद ही शातिरी से, छुपाते हुए भी निकाल सकते हैं..

ओ by God लग गयी, क्या से क्या हुआ
देखा तो कटोरा, झाँका तो कुआं
पिद्दी जैसा चूहा, दुम पकड़ा तो निकला काला नाग
भाग-भाग डी.के.बोस...

उपर्युक्त पंक्तियों में गायक अपने भगवान को याद कर रहा है और इससे समझा जा सकता है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति वाला इंसान है और फिलहाल दुःख में है.. क्योंकि हम केवल दुःख में ही ऊपर वाले का आह्वान करते हैं..
गायक को समझ नहीं आ रहा है कि उसके साथ ये कैसे हो रहा है? ठीक उसी तरह जिस तरह दिग्विजय सिंह को पता नहीं चलता कि वो जो बोल रहे हैं वो क्यों, कैसा, कब, क्या बोल रहे हैं.. और ठीक उसी तरह जिस तरह एक इंजीनियरिंग का छात्र अपने फाईनल एक्जाम में खिड़कियों के बाहर झांकता हुआ सोचता है कि शायद आसमान में कहीं उसे सवालों के जवाब मिल जाएँगे..
भगवान से गुहार करता हुआ गायक कहता है कि उसकी वाट लग गयी है जिसे सीधे, सरल और सलीके वाले शब्दों में कहें तो "दुर्गत हो गयेली है" (मून्ना भाई आपको थैंक्स यार!!)
वो भगवान के सामने कुछ तथ्य पेश करता है जिससे उसके ऐसी दुर्गति होने की पुष्टि होती है..
वह कहता है कि उसके हाथ में कटोरा है (जिसका कारण हम वीडियो में गायक की हालत देख कर लगा सकते हैं कि वह ट्रेनों में घूम-घूम कर कटोरे में पैसे बटोरता है और डी.के.बोस, डी.के.बोस का जाप करते वक्त मार खाता है इसी कारण उसकी एक आँख भी काली हो गयी है..) जब वो अपने कटोरे में झांकता है तो बटोरे हुए पैसों की जगह उसे कुआं नज़र आता है और उसके सारे पैसे गायब हो जाते हैं.. और वह फिर से डी.के.बोस का जाप शुरू कर देता है..
वह यह भी कहता है कि बिल में घुसने वाले चूहे को, जैसे ही वह दुम से पकड़ने की कोशिश करता है तो वह काला नाग निकलता है.. परन्तु इस बात कि पुष्टि नहीं हो पायी है कि बिल में घुसने वाले चूहे या सांप से उसके क्या ताल्लुकात हैं जो वह उसे दुम पकड़ के छेड़ने की कोशिश करता है..

किसने किसको लूटा, किसका माथा कैसे फूटा
क्या पता, we dont have a Clue
इतना ही पता है, आगे दौड़ें तो भला है
पीछे तो, एक राक्षस फाड़े मुंह
एक आंधी आई है, संदेसा लायी है
भाग-भाग डी.के.बोस...

गायक अभी भी भाग रहा है और अपने डी.के.बोस के जाप को जारी रखे हुए है.. उसके दो छुछुन्दर जैसे साथी इस भाग और राग में उसका पूरा साथ दे रहे हैं..
इन पंक्तियों में गायक अपने हिंसक प्रवृत्ति को जागृत कर रहा है और मरने-मारने की बात बता रहा है..
उसे पूरी दुनिया में किसी से कोई सारोकार नहीं है.. चाहे सरकार जनता को घोटाले कर के लुटे या फिर रामलीला में रावणलीला हो, उसे इन सब से कोई मतलब नहीं है और इससे वह अपने खुदगर्ज़ होने की बात को भी जग-जाहिर कर रहा है...
उसे केवल एक ही बात पता है और वो है यह कि उसके पीछे एक राक्षस पड़ा है और यह बात उसे भागते-भागते पता चली जब एक आंधी ने यह संदेसा दिया है.. शायद इसे ही विज्ञान का कमाल कहेंगे कि दूरसंचार अब बेतार हो चुका है और अब तो आंधियां भी संदेसा ले कर घूमती हैं.. इन पंक्तियों से विदेशी वैज्ञानिकों में खलबली ज़रूर मचेगी पर क्या करें हम भारतीय सबसे तेज हैं.. आजतक से भी!
खैर भागते-भागते जाप अभी भी शुरू है.. मेरे ख्याल से अगर इतना तेज, इस १०० करोड़ की आबादी में १० इंसान भी भाग लें तो १० पदक तो पक्के हो जाएँगे ऑलिम्पिक्स में.. इस गाने से सभी धावकों में एक नए रक्त का संचार हुआ है..

हम तो हैं कबूतर, दो पहिये का एक स्कूटर ज़िन्दगी
जो धकेलो तो चले
अरे किस्मत की है कड़की, रोटी, कपड़ा और लड़की, तीनों ही
पापड़ बेलो तो मिले
ये भेजा garden है और tension माली है
मन का तानपुरा, frustration में छेड़े एक ही राग
भाग-भाग डी.के.बोस...

गायक के पिता ने उसकी उपमा करनी अभी भी नहीं छोड़ी है.. वह उसे कभी कबूतर, तो कभी स्कूटर से तोल रहे हैं.. गायक कहता है कि यह दो पहिये का स्कूटर तो धकेलने से ही चलता है जिसमें एक गहन विषय को बड़ी बारीकी से छेड़ा गया है.. इसमें सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाई गयी है जो हर २ हफ्ते में पेट्रोल और तेल के दाम बढ़ा रही है और डी.के.बोस जैसे आम इंसानों को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है..
पर ख़ुफ़िया गीतकार के हवाले से यह भी पता चला है कि स्कूटर सिर्फ धकेलने से ही चलती है क्योंकि इन तीनों का भार केवल ट्रैक्टर ही उठा सकता है.. बजाज और वेस्पा तो २.५ लोगों के लिए ही बना था.. पर इन्होंने अपनी भारतीयता का इस्तेमाल करने की कोशिश की और इसलिए ऐसी मुसीबत में फंस गए हैं...
अगली पंक्ति में देश भर के नौजवानों की बात खुले दिल से गायक ने की है.. इससे पहले सभी भारतीय और नेताओं के लिए ३ सबसे अहम चीज़ें रोटी, कपड़ा और मकान हुआ करती थीं.. पर गायक ने पुरानी प्रथाओं को तोड़ते हुए नयी मिसाल कायम की है और कहा है कि किस्मत उसकी आज भी आज से ५० साल पहले जैसी खराब है जब रोटी, कपड़ा और मकान नहीं मिलता था.. आज उसे रोटी, कपड़ा और लड़की की कड़की जान पड़ती है..
इसमें भी एक गहन विषय को बहुत ही ख़ुफ़िया तरीके से छेड़ा गया है.. महंगाई के कारण रोटी और कपड़े की कड़की हो रही है और लड़कियों के प्रति अत्याचार और उनके क़त्ल होने के कारण लड़कियों की कमी महसूस की जा रही है.. पर ऐसी गहराई की बातों को भी सिर्फ कुछ विरले ही समझ पाते हैं..
फिर गायक कहता है कि पापड़ बेलने से उसे इन तीनों चीज़ों के मिलने से कोई नहीं रोक सकता.. रोटी और कपड़े का तो ठीक है पर पापड़ और लड़की मिलने का क्या सम्बन्ध है इस बारे में ख़ुफ़िया गीतकार के पास भी कोई जानकारी नहीं है.. शायद गायक जिस लड़की को चाहता है, उसे पापड़ बहुत पसंद हैं..
आगे गायक ने अपने शरीर पे ही खेती शुरू कर दी है (शायद उसकी ज़मीन सरकार ने छीन ली है).. वह अपने बालों को गार्डन और रोटी, कपड़ा और लड़की न मिलने से उत्पन्न हुए दिमाग में गंभीर कम्पन्न जिससे अंदर की कोमल नाड़ियाँ में तनाव पैदा हो गया है, उसे वह अपने बालों से भरे सर को जोतने की बात कर रहा है.. इसका सीधा असर उसके मन पर होता है जो उस कम्पन्न से पैदा हुए तरंगों से एक तानपूरे की तरह कार्य कर रहा है और वह एक ही राग छेड़ रहा है जिसके बोल हैं डी.के.बोस, डी.के.बोस, डी.के.बोस...

तत्पश्चात गायक और उसके दो साथी साभी साजों-गाजों को छोड़ कर भाग जाते हैं...

इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका यह गीत सरकार के मुंह पर तमाचा है और साथ ही साथ सभी युवाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत है जो ऑलिम्पिक में भाग ले कर देश का नाम ऊँचा करना चाहते हैं या फिर पापड़ बेल कर रोटी, कपड़ा और मकान... ओह माफ करियेगा लड़की की कड़की को मिटाना चाहते हैं..

*अभी-अभी: "मकान" की जगह "लड़की" इस्तेमाल करने का राज़ भी उजागर हो चुका है.. सरकार ने गृह-ऋण बढ़ा दिए हैं जिस कारण गायक ने मकान की आशा छोड़ दी है और उसे लगता है कि लड़की से शादी करते वक्त वह दहेज में मकान मांग लेगा.. एक तीर से दो निशाने! वाह! :)