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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

तीन साल ब्लॉगिंग के

आज ब्लॉग ३ साल का हो गया है... कुछ मेरी और ज्यादा आपकी बदौलत..

३ साल काफी लंबा समय होता है और तीन साल में काफी कुछ बदल गया है और काफी कुछ आज भी वैसा का वैसा ही है..
मेरी सोच, मेरे देखने, मेरे समझने, मेरे परखने का तरीका बदला है... ३ साल पहले मैं छात्र था, आज एक व्यावसायिक..

मैं, मैं वही हूँ जो आज से ३ साल पहले था.. ३ साल पहले मैं नंबरों के लिए कभी नहीं रोता था, आज भी नहीं...
मैं आज भी हिन्दी में ब्लॉग करता हूँ और बहुत खुश हूँ.. मैं कट्टर हिन्दीवादी नहीं हूँ पर अपनी मातृभाषा का सम्मान किसी और भाषा से ज्यादा करता हूँ..
आज मैं कई लोगों में अपनी ज़रा सी पहचान हिन्दी की बदौलत ही बना पाया हूँ इसलिए हिन्दी को मेरा शत्-शत् नमन हमेशा रहेगा..

हिन्दी मुझे विरासत में तो नहीं मिली पर मेरी माँ का हिन्दी में कविताएँ लिखना एक कारण है मुझे हिन्दी में लिखने को प्रेरित करने के लिए...
पर अब खुद से आशा है कि हिन्दी को उसके असली स्तर पर पहुंचाने में मेरा प्रयास १०० प्रतिशत रहेगा...
ब्लॉगिंग के शुरूआती दौर में अपनी सबसे प्रिय कविता लिखी थी - "कोई लौटा दे.." आज तक कोई नहीं लौटा पाया है.. जिंदगी में गए हुए पल कभी लौट कर नहीं आते हैं.. एहसास था, है और आशा है कि हमेशा रहेगा...

उसके बाद कुछ बिट्स पिलानी से जुड़े हुए वाकये और छोटी कविताएँ लिखीं जिसमें कईयों में मेरे विन्गीज़ का भी साथ रहा क्योंकि इंजीनियरिंग का तृतीय वर्ष सबसे दर्द और कष्टदायक होते हैं और दर्द-औ-दुःख में दोस्त हमेशा ही साथ रहते हैं जो मुझे बिट्स पिलानी ने ज़रूर दिए हैं...
तृतीय वर्ष में ही अपने अग्रजों के नाम एक काफी लम्बी कविता लिखी - "बचपन से बुढ़ापा - Psenti Special" जिसे काफी लोगों ने सराहा और मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई..

"गिनती ज़िन्दगी की" आज भी मेरे लिए सबसे कम शब्दों में ज़िन्दगी का व्याख्यान है..

तत्पश्चात कुछ हलके-फुल्के हंसी मज़ाक वाले पोस्ट जैसे "इमोसनल अत्याचार नहीं, प्यार" और "जंग का मैदान, मन है शैतान" जैसे कुछ लेखों ने ब्लॉग में जगह बनाई...

हिन्दी के गिरते स्तर और दुर्गति पर भी एक-आध पोस्ट लिखे पर फिर कहीं जा कर लगा कि हिन्दी पढ़ने वालों की गिरती तादाद का कारण क्या है? और इसी कारण की खोज करते-करते मैं लघु कथाएँ लिखने लगा जिसमें एक सन्देश हो और जो इतनी छोटी हो कि हिन्दी ना पढ़ने वाले भी यह समझकर पढ़ लें कि छोटा सा ही तो है पढ़ लेते हैं और मेरे ख्याल से यह बहुत ही कारगर रहा और मैं इसे कायम रखूँगा..
लघु कथाओं में सबसे अच्छी मुझे "लडकियां बनाम समाज", "आपत्ति", "एक दृढ़ फैसला?" और "दर्द-निवारक" लगे.. बाकियों को भी मेरे पढ़ने वालों ने पसंद किया जिसके लिए मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ..
"रजनी चालीसा" मुझे आज भी बहुत पसंद है.. रजनीकांतजी की बात ही कुछ ऐसी है!

"आत्महत्या" एक काले नागिन जैसी कविता थी जिसमें लोगों ने मुझे ऐसी नकारात्मक चीज़ें लिखने पर अप्रसन्नता जताई जिसका जवाब मैंने एक रंगीले पोस्ट "जियो जी" से दिया..

इसके अलावा कई गीतों को भी अपने ब्लॉग पर स्थान दिया जिसपर लोगों के सकारात्मक और आलोचनात्मक सुझाव आये जिससे मुझे अपने आप को बेहतर करने का भी मौका मिला..

३ साल... इन 3 सालों में मैंने हास्य, भयानक, रौद्र, करुण, विभत्स, वीर, अद्भुत और शान्ति रस के ऊपर लगभग-लगभग लिखा है..
श्रृंगार पर फिलहाल कुछ नहीं लिखा है.. शायद उस मामले में उतना परिपक्व नहीं हूँ.. होने पर आपको स्वतः ही कुछ लेख नज़र आने लगेंगे..

ब्लॉगिंग करके बहुत ख़ुशी मिलती है.. जहाँ मैं अनजान लोगों के विचारों से रूबरू होता हूँ और उन्हें अपने विचारों से रूबरू करवाता हूँ.. और अभी तक मुझे ब्लॉगजगत में काफी अच्छे और सुलझे हुए लोग ही मिले हैं जिसके लिए मैं इश्वर का शुक्रियादा करता हूँ और यह भी आशा रखता हूँ कि आगे आने वाले वर्षों में मेरी मुलाक़ात और भी ऐसे लोगों से हों जो अच्छे विचारधाराओं को इस समाज में फैला रहे हैं और एक सदृढ़ समाज बनाने की प्रक्रिया में हाथ बंटा रहे हैं..

कई लोगों की टिप्पणियाँ और विचार हमेशा से मेरे लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं.. जैसे समीर लाल जी, अल्पना वर्मा जी, शैलेश झा, निरुपम आनंद, निर्झर'नीर, अनिल पुसादकर जी, तपन अवस्थी, निर्मला कपिला जी, नीरज गोस्वामी जी, शरद कोकास जी, दिव्या जी, रश्मि प्रभा जी, प्रवीण पाण्डेय जी, सोम्या जी और और भी कई लोग जिनका नाम याद न कर पाने के लिए बहुत क्षमा चाहता हूँ..

आज ब्लॉगिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है और इसके जरिये मुझे काफी अच्छे लेख पढ़ने को और जानने को मिलते हैं.. मैं इसे अपनी ज़िन्दगी भर तक जारी रखना चाहता हूँ क्योंकि मेरी माँ कहती हैं कि एक बार किसी चीज़ को पकड़ लो तो उसे पूरा पार लगा कर ही छोड़ो और ब्लॉगिंग की नैया तो ज़िन्दगी के उस छोर तक चलेगी...

आशा है कि आपका प्यार, टिप्पणियाँ और सुझाव यूँ ही मुझे प्राप्त होते रहेंगे और मैं उनसे प्रोत्साहित होकर आपके समक्ष कुछ अच्छा पेश करने के काबिल हमेशा रहूँगा...
अंत में एक बार फिर से  मेरे ब्लॉग को इसके तृतीय वर्षगाँठ की हार्दिक बधाई और आप सभी को भी शुभकामनाएं...

आभार

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

पढ़े-लिखे अशिक्षित

२ दिन बाद होली होने के कारण मेट्रो में काफी भीड़ थी.. लोग अपने-अपने घर पहुँचने की जल्दी में थे और शुक्रवार होने के कारण भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गयी थी..
मैं भी अपने घर जाने के लिए मेट्रो में चढ़ा हुआ था और मेट्रो की हालत ऐसी कि तिनका रखने तक की जगह नहीं..
मेरे ठीक सामने एक दंपत्ति खड़ा था.. दोनों उम्र में काफी छोटे लग रहे थे और माँ के गोद में ५-६ महीने का बच्चा भी था.. बच्चा रो रहा था और बार-बार दोनों को परेशान कर रहा था और सीट न होने के कारण परेशानी और बढ़ गयी थी..

मेरे सामने एक हट्ठा-कट्ठा नौजवान, एक लैपटॉप बैग लिए, चश्मा चढ़ाए आराम से सो रहा था..
मैंने उसे हिलाते हुए कहा - "सर, अगर आप अपनी सीट बहनजी को दे दें तो बेहतर होगा.. बच्चा परेशान कर रहा है"
उसने उस महिला की तरफ देखते हुए तपाक से गुस्से में कहा - "नहीं, मुझे उठने में दिक्कत है" और आँखें फिर बंद कर लीं..

यह सुनकर मैं तो दंग रह गया पर इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, बगल में बैठा एक वैसा ही नौजवान उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट बहनजी को दे दी..

वह नौजवान ना ही लैपटॉप बैग लिए हुए था, ना ही चश्मा चढ़ाए और ना ही उसकी वेशभूषा उसके आर्थिक स्थिति के सही होने का प्रमाण दे रहा था..

मुझे झटका लगा और मैं सोचने लगा - पढ़ा लिखा और धनी कौन था? यह कि वो?
और मैं दोनों को एक-एक करके देखते हुए इसी सोच में डूबा रहा...