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गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कन्नू की “गाय” ते माँ का “Cow”

काफी महीनों बाद लिख रहा हूँ..कारण २ हैं.. पहला अनुपलब्धि अंतरजाल की और दूसरा अनुपलब्धि अच्छे विषय की...
पर आज दोनों ही बाधाएं दूर हो गयी हैं और इसलिए लिख रहा हूँ..
यूँ तो मैं लघु कथाएं लिखने लगा था पर आज एक लघु कथा ऐसी लिखूंगा जो कि मनगढंत नहीं है अपितु मेरे ही सामने घटा एक वाकया है..

शाम का समय था और मैं और मेरे दोस्त खाना खाने पास ही में एक आंटी के पास गए हुए थे | वहाँ खाना खाते वक्त आंटी का नाती अपनी माँ के साथ वहीँ आया हुआ था |
हम उससे बात करने लगे और पूछने लगे कि वो कौन से स्कूल में जाता है और क्या-क्या पढ़ता है? उसका नाम कन्नू है और बहुत ही नटखट और होशियार है | वो खुद ही हमें बताने लगा कि कौन सा जानवर कैसी-कैसी आवाजें निकालता है | उसने हमें बन्दर, शेर और बिल्ली की आवाज़ निकाल कर दिखाई और हमें भी बड़ा अच्छा लगा | फिर हम उससे खुद जानवरों के बारे में पूछने लगे |
हमने उससे पूछा कि अच्छा बताओ “मौं-मौं (रँभाना)” कौन करता है?
तो उसने तुरंत ही कहा – “गाय”
हमने कहा बहुत बढ़िया, कि इतने में ही उसकी माँ रसोईघर में से निकली और डांटते हुए कहाँ – “कन्नू कितनी बार बोला है “गाय” नहीं “काओ (cow)” कहा करो |”

उसी समय मैं समझ गया कि भारत आगे क्यों नहीं बढ़ रहा है | जहाँ माँ अपने बच्चे को बचपन से अमरीका और इंग्लैंड के लिए खाना, पीना, बोलना और रहना सिखाती है वहाँ वो बच्चा भारत के लिए क्या सोचेगा और क्या करेगा? गलती युवाओं में नहीं पर उनको पालने वाले उनके विदेशी माता-पिता में है जो पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में ही रहना पसंद करते हैं | यह तो मैं एक मध्यम-श्रेणी के परिवार का किस्सा सुना रहा हूँ तो उच्च-श्रेणी के परिवार जिनसे आज तक कोई उम्मीद ही न की गयी हो, से क्या आशा की जा रकती है?

देश वही आगे बढ़ा है जिसने अपनी भाषा को प्राथमिकता दी है | चाहे वो अमेरिका हो या फिर चीन | इस तरह की घटनाएं प्रोत्साहित करने वाली नहीं है एक उज्जवल और समृद्ध भारत की | पर कोशिश तो जारी रखनी पड़ेगी |