नया क्या?

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

सिर्फ एक बार !

काफी दिन हो गए कुछ लिखे हुए.. आपसे गुफ्तगू किये हुए.. काफी व्यस्त था नौकरी की खोज में और आखिर में मैं भी बाबू बन ही गया.. आप सभी की दुआ के लिए शुक्रिया..
मैं कभी भी सोच कर नहीं लिखता हूँ.. कभी मेरे आस-पास कुछ होता है तो लिखता हूँ.. यूँ कहें कि लिखते-लिखते सोचता हूँ और सोचते-सोचते लिखता हूँ..
पहली नौकरी लगी है और यह ख़ुशी शायद ही किसी दूसरी ख़ुशी से बढ़कर हो.. घरवाले भी खुश और हम तो ५० गुना ज्यादा खुश उनको देख कर.. मेरे काफी दोस्तों को भी नौकरी मिल चुकी है और अब बस महिना भर और रहता है जब सब अपने-अपने रास्ते इस ज़िन्दगी की दौड़ में शामिल हो जाएँगे जहाँ कोई किसी का भाई, दोस्त, यार नहीं होता है.. यह कातिल ज़माना है.. आप कमज़ोर पड़े, आप मारे गए..

बस यही सोच कर कोशिश कर रहा हूँ कि कुछ और दिन मैं अपनी ज़िन्दगी जी लूं.. बाद में तो इसे कंपनी वालों को हवाले करना ही है..
दो दिन पहले हमारे कैम्पस पे अंतरजाल बहुत धीमा हो गया था.. मानिए शुन्य के बराबर कि गति रही होगी अंतरजाल की.. तब जब सबके चेहरे देखते तो लगता कि हमें लकवा मार गया है.. पता नहीं क्यों पर आजकल आपके जिंदा होने का मापदंड अंतरजाल में जीवित रहने के समान हो गया है.. आप कितनी देर अंतरजाल पर रहते हैं, इससे आपकी दिनचर्या का हिसाब-किताब लगाया जाता है..

जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह अंतरजाल का भी है.. अच्छा और बुरा..
आज अंतरजाल ही है जिसके कारण चीज़ों, बातों, ज्ञान का आदान-प्रदान इतना आसान हो गया है.. मैं-आप चर्चा कर रहे हैं.. मैं यह पोस्ट आप तक पहुंचा पा रहा हूँ.. दुनिया छोटी हो गयी है..
पर वहीं दूसरी ओर जब सोचता हूँ कि आज हमारी ज़िन्दगी अगर अंतरजाल से तुलने लगी है.. इसके बिना अगर हम अपाहिज हैं.. अगर इसके कारण हम अपने कमरों को छोड़कर खुली हवा खाने को भी तैयार नहीं हैं.. अगर छोटी दुनिया के साथ-साथ हमारी सोच भी छोटी हो गयी है.. अगर हमारी दिनचर्या इतनी खराब हो गयी है कि कब उठना है, कब सोना है, कब खाना है..इसका अता-पता नहीं है.. अगर दोस्त केवल आभासी (वर्चुअल) हो गए हैं.. अगर हमारी अनुभूति का दम घुट चुका है.. अगर हमारी आत्मा मर चुकी है.. अगर !!
तो क्या फायदा हुआ इसका? तो क्या फायदा हुआ इस महाआविष्कार - अंतरजाल का?

कहीं तो कुछ कमी रह गयी है.. और सच मानिए कमी कभी भी बाहर नहीं होती.. अन्दर ही है.. हमारे अन्दर..
आज मैंने अपने कुछ दोस्तों से १० मिनट खाने के बाद घूमने चलने को कहा..सबने मना कर दिया.. क्यों? कोई कारण नहीं है.. सबके पास नौकरी है.. अब किसी को कुछ नहीं करना है कम-स-कम १ महिना तो.. फिर इतनी उदासीनता क्यों? आज आत्मा मर क्यों गयी है सबकी? क्यों हम वो पहले साल वाले नए-जोशीले छात्र नहीं रहे हैं जब एक बात पर कैम्पस के चार चक्कर लगाने में एक हिचक भी न होती थी? क्यों?
क्योंकि सबके कमरे में एक-एक लैपटॉप है.. क्योंकि सबके पास अंतरजाल है.. क्योंकि सबके पास डी.सी. (१ ऐसा सॉफ्टवेर जिसके जरिये कैम्पस पे कम-स-कम 40Tb डेटा शेयर होता है जिसमें हजारों फ़िल्में, वृत्तचित्र (डॉक्यूमेन्टरी), गाने और भी बहुत कुछ मौजूद है) है.. सबके पास इतना वक़्त ज़रूर है कि वो ३-३ घंटे बैठकर फ़िल्में देख सकें पर अगर ३० मिनट अपने दोस्त को समय देने को कहें तो नाक-भौं सिकुड़ उठे !!
और यही नहीं, आजकल तो आई.पी.एल. का नया हरदिन-प्रतिदिन नौटंकी शुरू हुआ है जो कि किसी सास-बहु सीरियल के लत से कम नहीं है.. लोग इन्हें देखना ज्यादा पसंद करते हैं.. बजाय इसके कि बाहर जा कर खेलें.. कॉलेज में अगर कोई प्रोग्राम हो रहा हो तो उसमें शामिल हो.. लोगों के लिए क्रिकेट उनकी अपनी ज़िन्दगी से बड़ा हो चुका है.. मैं तो कहता ही नहीं हूँ कि मेरे लिए चल लो बाहर.. मेरे लिए ये प्रोग्राम में आ जाओ.. मैं तो कहता हूँ कि कुछ दिन और हैं कॉलेज में.. तुम उसे जी लो.. बाहर निकलो.. कमरों से निकलों नामुरादों.. कब तक एक कीड़े की ज़िन्दगी जियोगे? और कीड़े की ज़िन्दगी तो शुरू होने ही वाली है.. एक भीरु की ज़िन्दगी कब तक जीते रहोगे.. आस-पास की दुनिया देखो.. कैम्पस बहुत हसीं है.. जितनी गालियाँ देनी थी वो तो दे ली हैं.. पर एक शर्त लगा लो.. अगर ऐसा माहौल.. अगर ऐसी शान्ति आज के बाद मौत के अलावा और अगर कहीं मिले तो एक बार मुझे ज़रूर कहना.. जो कहोगे करूँगा..
फ़िल्में तो ज़िन्दगी भर देखोगे.. गाने ज़िन्दगी भर सुनोगे.. पर आज जो मौका है बेवकूफी करने का.. नौटंकी करने के.. दोस्ती करने का.. दोस्तों के साथ रहने का.. आज़ाद रहने के.. यह फिर नहीं आएगा..
बहुत दुःख होता है जब लोगों की घुटती हुई आत्माओं को देखता हूँ हॉस्टल के कमरों में.. जिंदा लाश से ज्यादा कुछ नहीं है वो.. और जब यह लाश अपने दोस्तों, अपने करीबियों की होती है तो बेहद दुःख होता है.. चीरता हुआ अन्दर से.. किस-किसको समझाऊंगा मैं? कौन सुनेगा मेरी? फिल्मों के तेज़ शोरगुल में मेरी आवाज़ गुम हो गयी है.. उस लैपटॉप की रौशनी में वो पहले साल का खिलखिलाता हुआ चेहरा गायब हो गया है.. बहुत दर्द है.. पर कोई उसे महसूस कर सके तब..

ऐसी घुटन वाली ज़िन्दगी मत जियो.. उस कीड़े की तरह मत जियो जो रात भर बल्ब के आस-पास मंडराकर मर जाता है.. सिर्फ एक बार मेरी आवाज़ सुन लो.. सिर्फ एक बार उस भोले से चेहरे को याद कर लो.. सिर्फ एक बार ज़िन्दगी को ज़िन्दगी की तरह जियो.. सिर्फ एक बार !