नया क्या?

रविवार, 24 जनवरी 2010

जैसे को तैसा..

आज कुछ पढ़ रहा था अंतरजाल पर.. बहुत ही अच्छी कहानी.. कुछ कुछ सच भी.. तो सोचा कि आप सभी के साथ बाटूँ..
कहानी कुछ ऐसी थी:
एक बुज़ुर्ग अपने बेटे के यहाँ रहने गया, विलायत...
बेटे की शादी हो चुकी थी और बेटा भी था, ४ साल का..
बुज़ुर्ग पर उम्र काफी हावी हो चुकी थी.. नज़र कमज़ोर और शरीर भी.. जब शाम को वो सबके साथ खाने पे बैठता था तो कांपते हाथों और बेजान नज़रों से खाने की नाकाम कोशिश करता..
कभी चम्मच गिरता तो कभी खाना..
कभी बेटे से कहा नहीं कि अब ये शरीर बूढ़ा हो चला है इसलिए ऐसा होता है.. सोचता था जैसे बचपन में बेटे के बिना बताए ही उसके दर्द का एहसास होता था, वैसे उसके बुढ़ापे में भी हो... पर ऐसा कभी न हुआ..
यहाँ तो मामला उल्टा पड़ गया.. हर दिन की तोड़-फोड़ और टेबल पर गन्दगी से परेशान पिता को अलग बिठा दिया गया.. नीचे.. और अब उनके हाथ में लकड़ी की कटोरी और थाल रख दी जाती.. ताकि चीज़ें ना टूटे..
पिता मरता.. क्या करता.. चुपचाप रोते-धोते खाना खाता.. खट-खट करते.. पर किसी को मतलब नहीं..

एक दिन बेटा ऑफिस से घर आया तो देखा कि उसका बेटा लकड़ी से कुछ बना रहा है..
पूछा तो ४ साल के बच्चे ने कहा - "आप दोनों के लिए बना रहा हूँ.. बुढ़ापे के लिए.." और फिर अपने काम में लग गया..
जब बेटे की बात सुनी तो मियाँ-बीबी हतप्रभ! शर्म के मारे किसी ने कुछ नहीं कहा..

तब से अंतिम सांस तक बूढा पिता परिवार के साथ टेबल पर बैठकर खाना खाता था..
अब किसी को कोई परेशानी नहीं है.. ज़िन्दगी चल रही है.. और सिखा रही है.. :जैसे को तैसा.. ||


कहानी का सार यह है:
जिन हाथों को पकड़ कर चलना सिखाया,
उस हाथ ने ही पीछे से वार किया..
जिसको ढंग से बोलना सिखाया,
उसने बात करना ही छोड़ दिया..
सोचा था दिल से दिल मिला रहेगा,
पर तूने तो दिल को ही झंकझोड़ कर रख दिया,

मत भूल की एक दिन तू भी किसी का पिता होगा,
जो वो देखेगा, वही सोचेगा, वही करेगा,
अगर तुझे भी किसी दिन कुछ ऐसा कश्मकश हो..
तो आ जाना मेरे बेटे मेरे पास..
तेरे लिए मेरा घर खुला है..खुला ही रहेगा..

ज़बरदस्त गीत : नूर-ए-खुदा पढ़िये..

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

मुझे नौकरी चाहिए..

कैम्पस पर वापस आ कर घर जैसा लग रहा है.. जहाँ किसी बात की कोई चिंता नहीं है.. जब मन करे सो जाओ.. और जब मन करे, उठो..खाना खाया? कोई पूछने वाला नहीं.. नहाया? कोई पूछने वाला नहीं.. और ना ही पूछने वाली :)
यहाँ से दूर रहकर ज़िन्दगी कैसी होती है.. इसका अंदाज़ा तो हो ही गया है..बहुत मुश्किल है पर वहीँ जाना है चंद दिनों बाद.. पर कल की किसे चिंता है.. हमारा उसूल है.. आज को जियो... कल की नैया तो राम भरोसे..

नौकरी.. एक ऐसा शब्द जो भारत के सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले देश में आज भी एक मज़ाक सा है..
ग्रैजुएट सब्जी बेच रहा है और पांचवी फेल देश... असमंजस कर देने वाली सच बात..
कुछ वही हाल यहाँ के हर इंजिनियर के हाल चाल हैं.. पिछले ४ साल में जो पढ़ा उसको डालो कचरे के डब्बे में डालो.. अगर कंप्यूटर पे प्रोग्रामिंग आती है तो चयन होता है नहीं तो.. छोड़िये.. वैसे शब्द का इस्तेमाल करना ही बेकार है..
आज बैठे-बैठे सोच रहा हूँ कि अगर नौकरी केवल प्रोग्रामिंग से ही लगती है तो दूसरी जगह फ़ालतू ही मेहनत की (जितनी भी की हो :P)..

पर किस्मत में जो लिखा है वो मिलेगा.. रोना सिखा नहीं है और ना ही किसी को यह हिदायत दूंगा..
बचपन में कहते थे - क्या लड़कियों की तरह रो रहा है?
आज भी कहूँगा - क्या पराजितों की तरह रो रहा है?

तो जनाब आपकी शुभकामनाओं की ज़रूरत है कि जल्द ही हम भी नौकरी वाले बाबू हो जाएं.. ब्लॉग पर भी कुछ डालने के लिए समय मिलेगा और आप सभी से रूबरू हो पाऊंगा..
तब तक कार के लिए मेहनत कर रहा इस बेकार इंजिनियर के लिए दुआ करते रहिये..
आदाम.. सायोनारा..

शनिवार, 9 जनवरी 2010

अँधा कौन ?

बचपन उस अंधे को देखकर यौवन हो गया था...
जब अंकुर अपनी माँ के साथ मंदिर से बाहर आता तो उसे देख कर विस्मित हो जाता.. उसे दुःख होता...
एक दिन वह अपने दुःख का निवारण करने उस अंधे के पास पहुंचा..

पहुंचा और बोला - "बाबा, अँधा होने का आपको कोई गम है?"
अँधा बोला - "बेटा, यह दुःख बताने का नहीं.. यह आँखे किसी बच्चे की हंसी देखने को तरसती है, एक युवती के लावण्य के सुख को तरसती हैं, एक बुज़ुर्ग के बुजुर्गियत की लकीरें उसके चेहरे पे देखने को तरसती हैं... और हाँ इस धरती.. नहीं नहीं स्वर्ग को देखने को तरसती है.. बहुत दुःख है.. पर किस्मत खोटी है बेटा.. "

अंकुर आगे बढ़ गया..
वो सोच रहा था - "क्या अँधा होना इतना बुरा है?"

समय भी बढ़ता रहा...

अंकुर अब बड़ा आदमी हो गया.. पर विपरीत इसके, दुनिया में हर चीज़, लोगों की सोच जैसी छोटी हो रही हैं...
आज अंकुर अपनी पत्नी के साथ मंदिर आया है...
वो अँधा वहीँ हैं.. उसकी तरक्की नहीं हुई है.. इतने वर्षों तक भगवान के घर के सामने हाथ फैलाना व्यर्थ ही रहा.. ठीक ही कहा है - "भगवान भी उसकी मदद करता है जो खुद की मदद करे"

अंकुर आज फिर रुका और फिर से वही प्रश्न किया - "बाबा, अँधा होने का आपको कोई गम है?"
अंधे ने आवाज़ पहचान ली... बोला बाबू शायद आप बड़े हो गए हैं... आवाज़ से पता चलता है.. पर अब मैं बहुत खुश हूँ.. जहाँ बच्चों के चेहरों पर बस्ते का बोझ झलक रहा है, जहाँ एक-एक युवती के लावण्य पर प्रहार होते देर नहीं लगती, जहाँ बुजुर्गों की बुजुर्गियत वृद्धाश्रम में किसी कोने में पान की पीक के पीछे धूल चाट रही है... जहाँ ये धरती नर्क बन रही है.. वहां आज मैं बहुत खुश हूँ की भगवान को आँखें "देने" के लिए नहीं कोस रहा हूँ.. आज आँखें होती तो ऐसी चीज़ों को देखकर खुद ही आँखें फोड़ लेता... आज मैं खुश हूँ.. किस्मत बहुत अच्छी है बेटा.."
अंकुर आगे बढ़ गया..

वो सोच रहा था - "क्या अब अँधा होना अच्छा है?"