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मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

लडकियां बनाम समाज

बस खचाखच भरी थी और लोग जैसे तैसे अपने से ज्यादा अपने जेबों को संभाल रहे थे..
तभी निशा बस में चढ़ी क्योंकि उसे दूसरे बस के जल्दी आने की उम्मीद नहीं थी..

एक नवयुवक ने नवयुवती को देखा तो झट खड़ा होने को आया..
और कहा - "आप बैठिये, मैं खड़ा हो जाता हूँ |"
निशा ने हाथों से इशारा करते हुआ कहा - "धन्यवाद, पर लड़कियां अब लड़कों की मोहताज नहीं है | आप ही बैठिये |"

लड़का शर्मसार हो गया और उसने अपना सर झुका लिया |
निशा ने अपना ही नहीं परन्तु देश की हर लड़की का सर ऊँचा कर दिया था |
आस-पास के लोग सोच में पड़ गए...

बस चलती रही...

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

कुछ अपने मन की

वो महफ़िल में आये,
और दिल-ए-महफ़िल को चुरा ले गए..
आलम ऐसा हुआ इस महफ़िल का,
हम पानी को शराब समझकर पी गए...



हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
पर पूरी कायनात में कोई बेगाना ही ना मिला...



इन हसीनों के भंवर में ना पड़ बन्दे,
तू हो जाएगा कंगार..
फिर याद आएगा, पी.एम. ने कहा था..
जितनी लम्बी चादर..उतने ही पैर पसार..



हर इंसान को देख कर दिल कुढ़ा जा रहा है,
हर दिल दिन-दिन मरा जा रहा है..
और आप कहते हैं..
"तुम जियो हज़ारों साल-साल के दिन हों पचास हज़ार?"

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

घूसखोर भगवान

हमारी आदत ही हो गयी है.. जो नेता दिखे - घूसखोर है.. जो पुलिस वाला दिखा - घूसखोर है... जो सरकारी कर्मचारी दिखे - घूसखोर है..
माना की इन सब मामलों में हमारे तुक्के सत-प्रतिशत सही बैठते हैं.. पर कुछ दिनों पहले दुनिया का सबसे बड़ा घूसखोर खोजा मैंने..

हुआ यूँ की एक मंदिर गया था दोस्त के साथ.. काफी नामी मंदिर है.. वैसे तो मेरी मंदिरों से ज्यादा अपने कर्म में ही आस्था है पर यदा-कदा चला जाता हूँ हाजिरी लगाने जिससे भगवान को याद रहे की मैं अभी धरती पर हूँ और जिंदा हूँ..
तो जैसा की हर आम आदमी के साथ होता है, मैं भी आम जनता की तरह आम पंक्ति में खड़ा हो गया.. वही आम बातें चल रही थी की किसके पड़ोसी ने किस तरह सरे-आम कुछ आम लोगों के सामने कुछ हराम बातें कह दी.. वही आम बातें चल रही थी और मैं पूरे तन्मयता के साथ इन आम लोगों की आम बातों की मार एक आम इंसान की तरह झेल रहा था..बीच-बीच में गोपियाँ नज़र आती तो दोस्त से कहा.. वो बोलता "अरे मंदिर में आये हो.. कम से कम यहाँ तो कुछ लज्जा करो.." तो मैंने भी पलट कर जवाब दिया - "गुरु, अपने सखा का ही तो धाम है और फिर क्या उनकी १६००० सखियाँ नहीं थीं? किसी ने कुछ नहीं कहा.. और कौन सा मैं जिसे देख रहा हूँ, उसे सखी बना रहा हूँ.. देखने में कोई पाप थोड़े ही न लगता है.. कृष्ण धाम में हैं तो गोपियों को देखना कोई पाप नहीं!" मेरे जवाब से मेरा दोस्त लाजवाब और अब उसकी शंका भी समाप्त.. खैर जहाँ इतनी भीड़ हो वहां समय कट ही जाता है समझ लीजिये..

कुछ आधे-पौन घंटे बाद अन्दर प्रवेश हुए... क्या ज़माना है.. भगवान को अपनी और हमारी रक्षा के लिए मेटल डिटेक्टर की ज़रूरत पड़ने लगी है.. क्या कहें.. कलयुग आ गया है...
फिर अन्दर की पंक्ति में और १५ मिनट खड़े रहे.. ऐसा लग रहा था की वोटिंग करने आये हैं या किसी बड़े आदमी से मिलने आये हैं.. वरना भगवान से मिलना कौन बड़ी बात है? वो तो हर जगह है.. बस पुकारो मन से और दौड़ा चला आता है... (सब मनगढ़ंत बातें हैं.. कितनी बार बुलाया उसे एक्जाम हॉल में पर कभी नहीं आया.. शायद अजीबों-गरीब प्रशोनों को देख कर उसने प्रकट होना उचित नहीं समझा.. और मेरी माने तो अच्छा ही किया.. वरना डिप्रेशन के शिकार हो सकते थे हमारे भगवान)...

अब आलम ऐसा था की दो-तीन मंदिरों को मिलाकर एक मंदिर बना था.. और आपको हर मंदिर का दौरा करना था... बस बात इतनी सी थी की मुख्य-मंत्री को हवाई जहाज मिलती है और हमें "फ्लोट" चप्पल !!
पर जितनी देर मंत्री किसी बाढ़-ग्रस्त इलाके में रहता है.. बस उतनी ही देर हम भी वहीँ रहे.. कुछ सेकंड ही समझ लीजिये.. अन्दर पंडा बोल रहा था... "चलते रहो, चलते रहो" मानो रात का चौकीदार कह रहा हो - "जागते रहो, जागते रहो"... और मैं भी आम आदमी की तरह उनके आज्ञा का पालन करते हुए आगे बढ़ चला..
बाहर आया तो दोस्त ने कहा - "हाथ काहे नहीं जोड़े भगवान के सामने?"
हमने कहा - "कोई दिखता तो हाथ उठते ना !! जब भगवान तो छोड़ो.. मूर्ती भी नज़र नहीं आई तो ख़ाक हाथ जोड़ता... राजधानी की रफ़्तार से बाहर आ गए.."
जब हम प्रमुख मंदिर में पहुंचे तो वहां तो मेला ही लगा हुआ था... फिर वही भागम-भाग.. पंडा आगे खड़े कुछ लोगों को भगवान का नाम जपवा रहा था.. मैंने सोचा मुझे भी जपवा देते तो कम-स-कम कुछ महीनों का तो पाप धुल ही जाता... बेकार ही इतनी दूर आये.. पाप तो कमबख्त वहीँ का वहीँ है..

खैर सोचा अब निकलते हैं.. दर्शन तो हो ही गए (पता नहीं किसके दर्शन किये !!).. निकलने से पहले हम लोगों को पूरे आधे घंटे चक्कर लगाना पड़ा.. मंदिर के अन्दर बाज़ार खुला हुआ था.. धर्म-ग्रन्थ से लेकर खाने की चीज़ों से लेकर पहनने-ओढने की चीज़ें सब कुछ बिकाऊ थीं.. और वो भी मंदिर प्रांगण में.. दिल देख कर गद्द-गद्द हो उठा.. वाह भगवान आजकल तू भी व्यापर करने लगा है.. अपना पेट पालने के लिए..??

तभी मैंने अपने दोस्त से पूछा - "यार, कुछ लोग रस्सी के उस पार थे.. उनको कोई नहीं भगा रहा था.. आराम से दर्शन कर रहे थे.. और फिर उस पंडा ने भी वैसे ही कुछ लोगों को भगवान नाम रटवाया था.. ये क्या चक्कर है?"

उसने कहा - "देखो गुरु, यहाँ अन्दर घुसने से पहले एक टिकट खरीदना पड़ता है..पैसे दे कर... जिससे आप भगवान को करीब से और अच्छे से जान सको.. तो अगर वो टिकेट खरीदे होते तो आज आम आदमी की ज़िन्दगी नहीं जी रहे होते... तो जिन लोगों ने पैसे देकर भगवान को खरीदा.. वही आम खा पाए.. हम आम लोग गुठलियाँ ही गिनते रह गए !!"

मैंने कहा - "लो कल्लो बात, इससे अच्छा तो मंदिर ना ही आओ... चलो ऐसी चीज़ें देख ली है तो मेरा विश्वास भी पक्का हो गया है.... मंदिरों में अब न जाऊंगा.. लोगों ने यहाँ के भगवान को भी घूसखोर बना दिया है.. जो घूस दे वही बड़ा..हाँ?"
बस यही कहके निकल आये..
तो मेरा पहला विश्वास आज भी कायम है... भगवान मंदिरों में नहीं, दिलों में मिलता है.. अपने कर्मों में मिलता है... एक गाने के बोल याद आ गए (पूरे बोल नीचे दिए हुए लिंक में देखिये).. उसी से इस घूसखोर किस्से को ख़त्म करना चाहूँगा..

"... मंदिर तोड़ो, मस्जिद तोड़ो, इसमें नहीं मुज़ाका है,
दिल मत तोड़ो किसी का बन्दे, ये घर ख़ास खुदा का है..."



इस पोस्ट का गीत : झूमो रे (कैलाश खेर)