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गुरुवार, 26 नवंबर 2009

जिस दिन वीरों का जलसा निकला है

यह कविता २६/११ के नाम.. केवल लिखने के लिए नहीं..
कुछ करने के लिए भी..
आप भी आज ही से सिर्फ अपने बारे में ही न सोचकर उन लोगों के बारे में भी सोचिये जिनके पास आपकी सोच तक भी पहुँचने के सही मार्ग नहीं है...
साक्षरता देश और दुनिया दोनों का उद्धार कर सकता है...



नमन करता हूँ २६-११ के शूरवीरों को,
अपनी माँ का क़र्ज़ अदा किया है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

एक माचिस का डब्बा बन चूका था दिल,
उन नामुरादों ने चिंगारी भेंट में दिया है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

सफ़ेद कुरता पहन के निकले हो,
किसी के कफ़न का हिस्सा लग रहा है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

मोमबत्तियां जला कर, कर रहे हो क्या रोशन?
यहाँ हर एक दिल जला पड़ा है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

लिख रहे हो बढ़-चढ़ करके लेख इस दिन पर,
क्या लिखने से भी आतंकवाद मरा है?
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

दो मिनट मौन धारण की है सबने,
वो आतंकवादी जेल में सोये हुए आप पर हंस रहा है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

भगत सिंह हर किसी की मांग है,
क्या पड़ोस में कोई ऐसा नहीं जन्मा है?
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

शर्म से डूब मरने का कर रहा है दिल,
२२ सालों में देश के लिए कुछ नहीं किया है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

आज से कुछ करूंगा अपनी माँ के लिए,
ऐसा मैंने भी प्रण लिया है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...

आप भी कुछ करेंगे इस धरती के लिए,
बस मेरी दिल से यही दुआ है...
अरे यह शोक मनाने का दिन नहीं है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...
जिस दिन वीरों का जलसा निकला है...



एक ख़ास गीत इस पोस्ट के नाम : चंदा सूरज लाखों तारे (गुरुज़ ऑफ़ पीस) [ए.आर.रहमान/नुसरत फ़तेह अली खान]

आदाब.. सायोनारा..
जय हिंद !!

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

धर्म से कमाई या कमाई का धर्म?



बात चल रही थी कि फलाने मंदिर में लोग ६-७ घंटे भगवान के दर्शन [दर्शन क्या.. एक झलक ही समझ लीजिये] के लिए पंक्तियों में खड़े रहते हैं.. फिर ऊपर से खूब चढ़ावा भी होता है..
सुना था मंदिर वो जगह है जहाँ पूरे दिन का थका हुआ आदमी जाता है तो थकान मिट जाती है.. तन की भी नहीं पर मन की भी..
पर इसे क्या कहा जाएगा जिसमें लोग मन से तो पहले से ही थके हुए हैं और धर्म के लुटेरे उनके तन की शक्ति भी क्षीण करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं..
मंदिर/मस्जिद/गिरजाघर/गुरुद्वारा/इत्यादि सब रूपए कमाने के साधन हो गए है..
बड़ी बेगैरत बात है कि जिसकी धुन में इंसान खोने की बात करता था, उसके नाम मात्र पर खुद ही करोड़ों रूपए भुन रहा है..

आज इंसान मंदिर शांति के लिए नहीं जाता है.. बस समाज के कुछ रीति-रिवाज़ मन पे बोझ बनाए हुए चला जाता है..
मैं मंदिर हर दिन नहीं जाता हूँ.. शास्त्र यह नहीं कहते की भगवान ने कहा है - मेरी इबादत हर दिन मंदिर जा कर करो.. इबादत तो तुम तब भी करोगे जब तुम अपने काम में मुझे ढूँढ लोगे..
भगवान को हमेशा याद रखने के लिए मंदिर में नहीं पर अपने मन में बसाना ज़रूरी है..

मैंने कई लोगों को जिनमें बहुत ज़िन्दगी में भी काफी करीब हैं देखा है,
हर दिन मंदिर जाते हैं सुबह-सुबह.. और दिन भर करोड़ों लोगों की बुराई करने में निकाल देते हैं..
हर मौसम की तीर्थ-यात्रा करते हैं और हर मौसम में अपने काले स्वभाव से करोड़ों लोगों से राड़ रखते हैं..
जोर-जोर से भगवान का भजन करते हैं और उतने ही जोर-जोर से अपने पड़ोसी से लड़ाई करने में पीछे नहीं रहते हैं...


सोचता हूँ की जो पुण्य वो सुबह-सुबह कमाते हैं.. दिन भर में खर्च कर देते हैं.. फिर ज़िन्दगी बैंक में क्या बचता हो जो स्वर्ग यात्रा में काम आये?
उनसे भले तो वो हैं जो भले ही हर रोज़ मंदिर न जाते हों पर लोगों की भलाई ज़रूर करते हैं..

सिर्फ मंदिर/मस्जिद का फेरा आपको ज़िन्दगी के फेरे से बाहर नहीं निकाल सकता..
आपका कर्म ही आपके कर्मठता का परिचय है..
आपका मन ही आपके मानवता का द्योता..
आपकी बोली ही आपकी बलवत्ता दर्शाता है और
आपकी दिनचर्या ही आपके दिन का अंत..


तो यह सीख उन लोगों के लिए जो भगवान को मंदिर और मस्जिद में देखते हैं..
"अल्लाह को मस्जिद, राम को मंदिर और ईसा को गिरजाघर में ढूँढना छोड़ दो.. बस यही कहूँगा..
एक दिन दिल से अपने दिल में झांकना, अगर वो न हुआ तो कहना.. मैं दुनिया छोड़ दूंगा.. "


मन की शान्ति अपने आप में ढूँढो क्योंकि दुनिया तो अशांत ही हो चला है..
पर सोचता हूँ अगर इसी तरह अगर हम धर्म के नाम पर लड़ते-कटते रहे तो इस दुनिया से शांत जगह भी कहीं न मिलेगी..

इस पोस्ट का गीत गुनगुनाइए : दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा (किशोर कुमार)

तब तक के लिए..
खुदा हाफ़िज़..

रविवार, 15 नवंबर 2009

50-50

पिछले पोस्ट में नीरज त्रिखा ने जो कहा उससे तो बिलकुल सहमत हूँ और हाँ बात सिर्फ कह देने से समाप्त नहीं हो जाती, वरन उस पर अमल होना चाहिए, तभी कही हुई बात लाजवाब हो जाती है अन्यथा बेबात!

अब बारी इस पोस्ट की..




कुछ दिनों पहले मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठे बात कर रहा था कि अचानक किसी ने कहा - "सुनने में आया है कि शूकर इन्फ़्लुएन्ज़ा (स्वाइन फ्लू) भारत में अपने पाँव इसलिए नहीं पसार पाएगा क्योंकि भारतीय विटामिन युक्त और पौष्टिक खाने ने खुद एच १ एन १ विषाणु (वाइरस) के पाँव पसार दिए हैं | विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की तुलना में दूसरी जगहों पर देखा जाय तो सर्दियों में यह अभी भी लोगों पर कहर बरपा रहा है जो कि भारत में नाम मात्र रह गया है |"

मेरे दिमाग में इस बात को लेकर दो विचार आये :

1.) अरे जनाब जहाँ भारत की अधिकतम जनता इतने बुरे हालातों में रहती है, वहां ऐसे विषाणु की औकात ही क्या है? लोग नाली में जन्म लेते हैं और वहीँ मर जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे उस इंसान के साथ ही उस नाली में जन्मा वो मच्छर.. वहीँ जनमता है और वहीँ गंदगी में उसके प्राण उखड़ जाते हैं.. मैं तो कहता हूँ कि जिन लोगों को एक समय की रोटी मयस्सर नहीं होती है उनको वो पौष्टिक भोजन की कामना करना ठीक उसी सामान है जैसे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के लोगों को यह बताना की हिन्दी में भी शपथ लिया जा सकता है.. (ऐसा मैं नहीं, भारतीय संविधान कहता है..वैसे इस वाकये पर भी पूरी पोस्ट हो सकती है :) ).. इसके अलावा यह फ्लू तो बड़े लोगों का चक्कर है जो विश्व का चक्कर लगा-लगा कर आते हैं और इस चक्रव्यूह में बेचारे मासूमों को भी चकरा देते हैं | और यह बात भी साफ़ है कि जो पढ़-लिख कर बहुत कमा रहे हैं और कमाने से दूना खर्चा भी कर रहे हैं.. वो वाकई में एक तिनके के सहारे एक उफनते दरिया से बच सकते हैं.. क्योंकि उनकी जान तो घंटों कंप्यूटर के सामने बैठे-बैठे ही निकल जाती है.. बचता है सिर्फ हल्का सा हड्डी का ढांचा जिसे एक तिनका भी सहारा दे कर किनारे पहुंचा सकता है और "डूबते को तिनके का सहारा" वाली कहावत को चरितार्थ कर सकता है...

2.) दूसरी बात यह कि ये अजीबो-गरीब बीमारियाँ सब अमेरिका से ही क्यों पनपता है? (शूकर फ्लू मेक्सिको से ही फैला था जो की उत्तर अमेरिका में स्थित है) बड़ा अचरज होता है और दूसरे ही क्षण होठों पे मुस्कान सी आ जाती है.. अब वहां का रहन-सहन, खाना-पीना, बोल-चाल ऐसी ही है कि अमेरिका को "नए-नए बिमारियों का आविष्कारक" की उपाधि से सम्मानित करना चाहिए.. हमारे जो बुजुर्ग लोग हैं,.. कभी-कभी ऐसी बिमारियों के बारे में सुनते हैं तो डर रहता है - कहीं दिल का दौरा न पड़ जाय!
वहां का अधिकतम खाना सब "खाने के लिए तैयार" रहता है, पता नहीं कितने महीनों पहले पका हुआ खाना खा-खा कर लोग ज़िन्दगी चला (वो जीते नहीं हैं.. चलाते ही हैं) रहे हैं!  कईयों के तो खाने में कबाड़ खाना (जंक फ़ूड :) ) और दारु के अलावा कुछ होता ही नहीं है.. अब जब ज़हर ही अन्दर जा रहा है तो कोई अमृत का काम तो नहीं ही करेगा ना? और यही सब बुरी बातों का जिस प्रकार प्रचार-प्रसार किया जा रहा है उससे पूरे विश्व के लोग भ्रमित हो रहे हैं..
लोगों को यह खाना-पीना इतना पसंद आ रहा है कि अपने पसंद की मौत भी पाना नामुमकिन सा हो रहा है.. क्योंकि पता ही नहीं कब, कहाँ, कौन सी बीमारी उनकी ज़िन्दगी को पसंद करके ब्याह ले और सीधे कब्रिस्तान पहुँच के सु-दाग रात मनाएं!.. अफ़सोस है कि जिस तरह पूरा विश्व भ्रमित हो रहा है, उससे कम-स-कम भारत के बड़े शहर तो उसी गति से कब्जे में आ रहे हैं जिस तरह आजकल भाजपा के सभी नेता एक-दूसरे को तेजी से कुर्सी से नीचे धकेल रहे हैं! हमें भी आजकल तेज़ खाना (फास्ट फ़ूड) खाना तेज़ लोगों की ज़िन्दगी का एक अंग लगता है और हम उसी तेजी से अपने शरीर के तेज को ख़त्म कर रहे हैं...
फिर क्यों ना हम जैसे लोगों को ऐसे उटपटांग बीमारियाँ ग्रसित करे?

प्रश्न खुद हमने खड़े किये हैं जिसके जवाब खुद हमें ही ढूँढने होंगे..

तभी मैं सोच रहा हूँ..

पहले जब किसी की मौत 50 साल की उम्र में हो जाती थी तो लोग अचंभित हो कर कहते थे - "क्या? सिर्फ 50 साल का था? फूटी किस्मत की इतनी जल्दी अल्लाह को प्यारा हो गया! "
और आज से 20-25 साल (या उससे पहले ही शायद.. 5 घटा/बढ़ा लीजिये :)) बाद जब किसी की मौत 50 की उम्र में होगी, तो भी लोग अचंभित ज़रूर होंगे पर उनके कहने का तरीका और शब्द कुछ इस तरह बदल जाएँगे - "क्या? 50 साल जी गया? फुल किस्मत वाला था जो इतने साल तक अल्लाह को वो रास ना आया! "


तो जनाब आप इसी बात पर मंथन करते रहिये.. ऐसे उटपटांग बिमारियों से बचते रहिये (अच्छा खाइए.. पीजिये.. ओढ़िये).. साथ ही साथ लोगों को भी बचाइए.. पर मस्त रहिये..
"चंद लम्हों की जिंदगानी.. जियो जैसे हों उषाणु..
सस्ती ना हो मौत इतनी.. की ले जाय ऐसा विषाणु.."

इस पोस्ट का गाना गुनगुनाते जाइए :
छोड़ दे सारी दुनिया (लता मंगेशकर)

आदाब-ए-अर्ज़..

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हिन्दी - ठंडा.. पर अंग्रेजी - कूल !!

आज यह लेख पढ़ रहा था.. तो सोचा कि चूँकि मैंने अपने पिछले पोस्ट में अब क्रियाशील होने की बात कही है तो उसे पूरा क्यों ना करुँ भला?

सबसे पहले ये बता दूं पिछले पोस्ट में मुझे यह टिप्पणी मिली.. उसका उत्तर दे देता हूँ..

जनाब 1 बात मेरे अन्दर घर कर गयी है.. जिसे मैं उतना नहीं मानता था पर अब मेरा भी इस पर सत-प्रतिशत विश्वास हो गया है | आपने कहा कि लड़कियों की बातें अगर मैं सुन लेता तो मुझे पोस्ट में लिखने के लिए और भी विषय मिल जाते |
बुजुर्ग जो भी कहते हैं वो उनके बुजुर्गियत का निचोड़ होता है और उन्होंने सच ही कहा है कि औरतों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है (ये तो डॉन जैसा डायलॉग है :) ).. और यह बात को मैं गाँठ बांधकर चलता हूँ..
अगर आप कहते हैं कि उनके दुःख को समझकर मैं कुछ लिखूं तो मुझे तो बख्श ही दें.. उनके दुःख तो ऐसे बदलते हैं जैसे कोई लड़का अपनी गर्लफ्रेंड बदलता हो (इस बात पर आपको विश्वास करना ही होगा.. बड़े शहरों का तो खेल है ये) !! आज वो इसलिए दुखी हैं.. और कल किसी और के लिये.. बेचारा दुःख भी उनसे दुखी हो चुका है..
तो मैं बेहद खुश हूँ कि मैंने उनकी दुःख भरी बातें नहीं सुनी.. और ना ही लोगों को दुखी किया (अगर सुनकर पोस्ट कर देता तो कितने लोगों की बददुआएं लगती.. सोचिये !!).. तो यही मेरा उत्तर है..

अब इस पोस्ट के शीर्षक की बातें करूँ?
हिन्दी हमारी मातृभाषा होते हुए भी.. पता नहीं अन्दर 1 गाँठ सी पड़ी है.. लोगों को ये इतनी गिरी हुई भाषा क्यों लगती है? अंग्रेजी में कहें तो - "सो मिडिल क्लास टाइप".. जब तक जबान पे अंग्रेजी की खिट-पिट शुरू नहीं होती तो लोगों को ऐसा लगता है मानों कोई गंवार बक-बक कर रहा था..

आखिर ऐसी क्या बात है कि हिन्दी में बात करना हमारे लिए "कूल" नहीं होता है? ठीक है माना कि हम शुद्ध हिन्दी नहीं बोल सकते (अगर ऐसा हुआ तो भारत की आधी जनता आत्महत्या कर सकती हैं यह मेरा दावा है !!)..पर हिन्दी की दुर्गति (बोले तो वाट्ट) क्यों कर रहे हो महानुभावों? ऊपर वाले लिंक में जनाब ने कहा कि हमें कट्टर नहीं होना चाहिए.. हम ट्रेन को लौहपथगामी नहीं कह सकते.. ठीक है माना.. पर ऐसा कहने को कौन बोल रहा है? हम कट्टर तो नहीं है पर कम-स-कम साफ़ हिन्दी तो बोलो | हर 2 शब्दों के बाद जो अंग्रेजी अपना चेहरा सामने ले आती है उसका कारण यही है कि हम कट्टर नहीं हैं.. वरना पता चला कि हम तालिबानियों की तरह हो गए और 1 अंग्रेजी शब्द निकलते ही काम तमाम ! हा.. ऐसा तो हम कह ही नहीं रहे हैं |

भारत में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की आधी जनता को हिन्दी आती ही नहीं है.. और क-ख-ग वाली अक्षरावाली तो कम से कम 90% लोग पूरा सही बोल ही नहीं पाएँगे (और इसपर शर्म की बजाय गर्व से कहेंगे - "दैट इज सो मिडिल क्लास टाइप").. और अभी पूछो - "बेटा A-B-C बोलो.." तो वो दो साल का छुटकू सा बच्चा फर्र से बोल लेगा..
गलती उन लोगों की नहीं है जो हिन्दी बोलते, लिखते हैं और पूजते हैं.. गलती तो हम बच्चे के बचपन से ही करते हैं..

मैं तो कहता हूँ की A-B-C सिखाने से पहले उसे क-ख-ग सिखाया जाय.. देखें की वो आगे चलकर कम-स-कम साफ़ हिन्दी बोल पाता है कि नहीं..

हम शुरू से ही उस मासूम के आस-पास ऐसा परिवेश तैयार कर देते हैं जिससे उसमें हिन्दी के प्रति हीन भावना जागृत हो उठती है.. मैं जिन सामाजिक नेट्वर्किंग साइट्स में शामिल हूँ, उनमें से शायद 1 या 2 लोग ही हैं जिन्होंने हिन्दी उपन्यास पढ़े हों.. अंग्रेजी पढ़ना कोई बुरी बात नहीं है.. पर हिन्दी को भी उतनी ही प्राथमिकता देने की ज़रूरत है..

अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी पहली भाषा होती है विषय के तौर पर और हिन्दी दूसरी भाषा है.. क्या यह आश्चर्य और दुःख की बात नहीं है कि जिस राष्ट्र की मातृभाषा हिन्दी है, उसी राष्ट्र के 50 से ज्यादा प्रतिशत स्कूलों की पहली भाषा हिन्दी नहीं है? !
सरकारी स्कूलों के बारे में मुझे सही-सही मालूमात नहीं है पर वही भेड़-चाल हर जगह अपने पैर घर कर चुकी है.. वहां भी हिन्दी से ज्यादा अंग्रेजी का ही बोलबाला है..

*इस पोस्ट में 1 ऐसी बात है जो मैं अंत में आप सबके सामने रखूँगा और आपको वह पढ़कर बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि सच आश्चर्यचकित करने के लिए नहीं वरन आँखें खोलने के लिए होती है..

साथ ही साथ दुःख की बात यह है कि बिट्स पिलानी जैसे श्रेष्ठतम कॉलेज में भी हिन्दी लिखने वाले बहुत कम है.. और जहाँ तक मेरी जानकारी है, कैम्पस के जिन्दा(जो कम-स-कम महीने में एक बार अद्यतन होते हैं) हिन्दी ब्लॉग में केवल 1 या 2 लोगों का ही नाम आ सकता है..

तो यह तो हिन्दी का दुर्भाग्य ही है कि राष्ट्र भाषा होते हुए भी सड़कों के आवारा पशुओं की भाँती उसे देखा, सुना जाता है..
पर इसमें उसकी भी क्या गलती है.. गलती तो हम जैसे "सो कॉल्ड" यूथ की है जिन्हें हिन्दी बोलना/लिखना ठंडा पर अंग्रेजी बोलना/लिखना उतना ही कूल लगता है !!

तो ना ही हम कभी कट्टर रहे और न ही कभी रहेंगे और शायद यही 1 बिंदु है जो हिन्दी की दुर्गति को कभी रोक नहीं पाएगा.. अब फैसला तो आप पर है.. क्या कट्टर हो कर हिन्दी को बचाएं? या नर्म रह कर हिंगलिश को बढ़ावा दें?
तो आप इस कट्टर प्रश्न पर मंथन करते रहिये और हम इस विराट सागर में एक बूँद पानी का योगदान ऐसे छोटे-छोटे लेखों से करते रहेंगे..

जाते जाते एक किस्सा सुनाना चाहता हूँ :
आशुतोष राणा जो कि हिन्दी फिल्म जगत के जाने-माने कलाकार हैं, 1 बार किसी विदेशी से भारत में मिले..
विदेशी : How are you?
आशुतोषजी : मैं बढ़िया हूँ.. और आप?
(किसी ने अंग्रेजी में बताया कि वो क्या कह रहे हैं..)
इस पर उस विदेशी को बड़ी हैरत हुई की इन्होने हिन्दी में जवाब क्यों दिया...पर कुछ पूछा नहीं..

कुछ महीनों बाद आशुतोषजी उसी विदेशी के शहर पहुंचे..
इस बार :
विदेशी : आप कैसे हैं? (उसने हिन्दी ख़ास आशुतोषजी के लिए सीखी थी !!)
आशुतोषजी : I am doing fine. What about you? क्यों अचंभित हुए कि मैंने इस बार भी उल्टे भाषा में जवाब क्यों दिया? बताता हूँ : पिछली बार जिस तरह आपने अपनी भाषा का सम्मान किया, उसी प्रकार मैंने भी अपनी भाषा का सम्मान किया और इस बार जिस तरह आपने मेरी भाषा का सम्मान किया, ठीक उसी तरह मैं भी आपकी भाषा का सम्मान करता हूँ..

तो ऐसे लोग भी हैं जो कट्टर न होते हुए भी लोगों को जीत लेते हैं... ऐसे लोगों को हमेशा नमन..

हाल फिलहाल प्रेमचंदजी की गोदान और गबन पढ़ी.. अन्दर से हिल गया बिलकुल...
वो आदमी को अन्दर से प्रस्तुत करते हैं और ऐसा लगता है मानों पूरे समय कोई फिल्म चल रही हो ठीक आपके सामने..
ऐसे लेखक को सौ बार नमन है..

*इस पोस्ट की ख़ास बात : मैंने सभी अंकों को अंग्रेजी में ही रख छोडा है क्योंकि मुझे पूर्ण भरोसा है कि १,२,3,४,५,६,७,८,९.. यह भी भारतीय जनता के लिए याद रख पाना समुद्र में से मोती ढूँढ निकालने के बराबर का काम है.. :)

इस पोस्ट का गाना पढ़ते जाइये :
ब्रेथलेस (बेदम.. अगर मैं कट्टर हो जाऊं तो :) )
शंकर महादेवन का एक बेहतरीन गाना..

आदाब.. खुदा हाफिज़..

बुधवार, 4 नवंबर 2009

बेवकूफ लड़कियां..नींद की कड़कियां

लग रहा है कि बहुत सालों बाद इस ब्लॉग पर कुछ डाल रहा हूँ.
वैसे मेरा ही लफ्जों का खेल वाला ब्लॉग तो हमेशा ही अद्यतन होता रहता है..
और कल ही यहाँ पर भी कुछ डाला है..
पर मेरा खुद का ब्लॉग ही सूना पड़ा है..

तो आज इसका रुदन दिल तक पहुंचा और मैं आ गया फिर से ब्लॉग पर थोड़ा क्रियाशील होने..

वैसे आप सबको बता दूं कि एक पोस्ट तो मैं काफी दिनों से लिख रहा हूँ पर यहाँ छप नहीं पा रहा है क्योंकि विषय ही कुछ ऐसा है जिसपर सोच समझ के ना लिखा जाय तो जूतियाँ पड़ सकती हैं..

खैर आज मैं अपना एक निजी अनुभव आपके साथ बांटना चाहता हूँ और आपकी राय भी सुनना चाहता हूँ...
तो आशा करता हूँ कि आप इतने दिनों बाद भी इस नाचीज़ को ना भूले होंगे..

कुछ दिनों पहले यात्रा करने का मौका मिला और सफ़र करने का आनंद जो ट्रेन में है वो कहीं और हो.. ऐसा हो ही नहीं सकता..
और फिर किस्मत देखिये.. सफ़र लम्बा हो तो हमसफ़र भी अच्छा चाहिए.. 
घर से तो अकेला ही निकला था पर अपनी सीट पर जा कर देखता हूँ तो हमारे कम्पार्टमेंट को छोड़कर पूरे डब्बे में किशोरियां..
हमने सोचा.. लो भैया तुम तो एक हमसफ़र की तलाश में थे और यहाँ तो जमात है पूरा..

खैर जहाँ इतनी लडकियां हों वहां सब कुछ ठीक कहाँ हो सकता है?
तो अपने दिल के उछलने का सबब हमें नींद में ही मिल गया..

ऐसा लग रहा था मानों ये लड़कियां पहली बार ट्रेन में सफ़र कर रही हैं.. चूँकि ट्रेन रात को चली थी तो अपना काम था.. पैर पसारकर लम्बी वाली नींद लेना.. पर जनाब जहाँ बेवकूफों से भरा इतना बड़ा दल हो वहां मेरे जैसे लोग दलदल में फंसेंगे ही..
रात..(या यूँ कहें..बस पौ फटने ही वाला था) के करीबन ४ बजे.. खुसुरफुसुर की आवाज़ कानों के ज़रिये दिमाग में पहुंची और नींद को आंधी की तरह उड़ा ले गयी..
पास वाले कम्पार्टमेंट से जोर-जोर (अब समझ आया.. वो खुसुरफुसुर नहीं था !!) से ये मंदबुद्धि लड़कियां अपने घर-घराने की बातें कर रही थीं..

किसी की माँजी उनके पिताश्री से बड़ी हैं... तो किसी की बहन को उनसे प्यार नहीं है.. किसी लड़की ने आज ही किसी को आत्महत्या करने के कई नुस्खे सुझाए हैं... तो किसी को लम्बे बाल पसंद नहीं हैं (वहीँ मैं सोच रहा था.. लड़कियों की बातों में श्रृंगार कहाँ गुल हो गया? )..

मन तो कर रहा था कि इनको खरी-खोटी सुनाऊं.. अरे भाई तुम्हारे घर-बार में क्या हो रहा है.. वो अपने पास ही रखो ना.. यहाँ दुनिया पड़ी है नींद में.. उन्हें जगा-जगा के बताना काहे चाहती हैं? और अगर आपको आत्महत्या करनी ही है तो आप बिलकुल सही जगह हैं.. कहिये तो मैं दरवाज़ा खोल दूं?.. रात के.. माफ़ करियेगा.. सुबह के चार बजे आप फुल वॉल्यूम में अपना पिटारा काहे बजा रही हैं...

पर फिर मैं अच्छे बच्चे की तरह उठा और उनसे जा कर सिर्फ इतना ही पूछा - "क्या मुझे रुई के २ टुकड़े मिल सकते हैं? अपने कानों में ठूसने के लिए?"
मुझे यह कहता सुनते ही सब शांत.. सबको सांप सूंघ गया और मैं... सांप और उनको वहीँ छोड़कर अपनी बर्थ पर आकर फिर से लेट गया...


तभी मुझे विज्ञान पर बड़ा नाज़ हुआ और मैंने अपना mp3 प्लेयर निकाला और दोनों कान-चोगों (ईअरफ़ोन) को जितना अन्दर हो सके.. ठूंस दिया और फिर मस्त भरी नींद सोया..

पर आज भी सोचता हूँ तो ऐसी लड़कियों पर रोना आता है कि.. इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद उन्हें इतना बताना पड़े कि भैया..माफ़ कीजियेगा.. बहनों.. ये सार्वजनिक जगहों पर ध्वनि-विस्तारक (लाऊडस्पीकर) को थोड़ा शांत रखें और बाकी लोगों का शांति भंग ना करें..

खैर अंत भले का भला..
अगले दिन खूब मस्ती की और पूरा भ्रमण काफी अच्छा रहा..
जल्द ही आपके समक्ष उस पोस्ट के साथ आऊंगा जिसपर लिखते हुए दिल बैठा जा रहा है और वो कम्मकल पूरा भी नहीं हो रहा है...

तब तक आप इस पोस्ट का गाना :
आवारा हूँ (मुकेशजी का गाया हुआ और आवारा फिल्म से) यहाँ से पढ़िये..
और अपने टिप्पणियों से इस भूले-बिसरे ब्लॉग को आबाद करते जाइए..

तब तक के लिए..खुदा हाफिज़.. सायोनारा..