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गुरुवार, 14 मई 2009

प्यार, यार, वार !!

पिछले एक पोस्ट में मैंने बिट्स में भारतीय संस्कृति को बचाए रखने पर यहाँ के छात्रों की तल्लीनता पर प्रकाश डाला था पर आज अफ़सोस कि एक अँधेरा सा छा रहा है उस पोस्ट पर, इस संस्कृति पर और हमारी काबिलियत पर |
आज हमारे फाईनल एक्ज़ाम ख़त्म हुए हैं और तभी फुर्सत में ये पोस्ट आपके सामने आ रहा है |

एक्ज़ाम ख़त्म होने की ख़ुशी में और विद्युत अभियंता बनने का सुरूर तो हम सब पर चढ़ा ही है और इसी को जश्न में तब्दील करने के लिए हम हमारे कैम्पस में कनॉट में खाना खाने गए | बातें चल रही थी और जो बातें आजकल सबसे ज्यादा आम है, लड़का-लड़की, दोस्त-दोस्ती, वही सब चल रहा था | कोई किसी का किसी के साथ होने पर खुश था और कोई किसी की कुछ अनसुनी बातें बुझा रहा था | बात इतनी आम हो चुकी है कि राह चलते भी बस यही बातें | मौका मिले और हम शुरू हो जाएं | अब साहब इस उम्र में नहीं तो फिर कब करेंगे ? पर हाँ एक बात तो तय है | हमें आजकल ऐसी बातें करने में ज्यादा मज़ा आता है और जब भी कोई गंभीर विषय की बात होती है तो वहां से किनारा काटने में ही अपनी भलाई समझते हैं |
कुछ लोग कैम्पस में बढ़ते गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड ट्रेंड को लेकर चिंतित थे | बात यह नहीं की यह ठीक नहीं है पर उनका कहना है कि हर किसी रिश्ते में एक सीमा और मर्यादा होती है जिसे लांघना न केवल उस रिश्ते को पर पूरे समाज की स्थिति को भी धूमिल करता है |

कैम्पस के कुछ ऐसे वाकये सामने आए जो मैंने भी पहले नहीं सुने थे और सुनकर तो मैं भी शर्मसार हो उठा | लोगों के लिए यह एक फैशन बन गया है और इस फैशन की चका-चौंध में आँखें सभी की चुंधिया गयी हैं | इन 20-22 साल के थोड़े परिपक्व और तेज़ युवाओं ने हर सीमा का उल्लंघन करने का शायद मन बना लिया है | इनमें से ज्यादातर लोगों को यह भी पता नहीं चलता है की इस चुन्धियाने वाले फैशन में वो सार्वजनिक जगहों पर कुछ ऐसे काम कर जाते हैं जो उन्हें फंकी लगता है और जो उन्हें यह झूठा एहसास दिलवाता है कि उनका स्तर बाकी लोगों से ऊंचा है |

जब मेरे दोस्तों ने 2-3 ऐसे किस्से सुनाए तो लगा की अभी तो ना जाने कितने अनकहे-छुपे किस्से हमें नहीं पता है और इन 2-3 किस्सों ने ही दिल को जैसे झकझोर कर रख दिया है | माफ़ कीजियेगा मैं उन सब वाकयों को यहाँ सबके समक्ष लाकर खुद को शर्मिंदा नहीं करना चाहता हूँ |
वैसे इस पोस्ट को पढ़ने वाले यह सब तो समझते ही होंगे की मैं कैसे अंधेपन की बात कर रहा हूँ जो इस युवा पीढ़ी को विवेकशून्य बना रही है | आज जब मैं कॉलेज में अपने प्रथम वर्ष और इस तृतीय वर्ष के अंत को तुलनात्मक रूप में देखता हूँ तो लगता है कि मैं वैसे ही ठीक था और यह कॉलेज भी |
प्यार-मोहब्बत-इश्क तो खुदा की एक हसीन देन है जो उस मासूम बच्चे की हंसी समान मधुर और सौम्य है | फिर क्या हुआ ? हम क्यों बदल गए ? आखिर ऐसी क्या बात है जो हम इस आधुनिकता की दौड़ में आगे तो जा रहे हैं पर सांस्कारिकता और व्यावहारिकता के दौड़ में सबसे पीछे आने की कोशिश में लगे हैं |

मेरे ख्याल में जो अहम् की भावना है, उसकी इसमें मुख्य भूमिका है | मेरे दोस्त ने कुछ दिन पहले बताया था कि एक लड़की को ऐसा लगता था की उसकी रूममेट को लड़के ज्यादा पसंद करते हैं या उसपर ज्यादा ध्यान देते हैं और इसी कारण वह उदास रहने लगी और अपनी पढ़ाई भी खराब की | काफी छोटी सी बात | पर जब सुनने में यह भी आता है कि फलानी लड़की ने फलाने लड़के के लिए आत्महत्या कर ली या फलानी लड़की का कत्ल कर दिया तब दिमाग ठनकता है | कहीं यह लड़की भी उस उदासीनता की शिकार तो नहीं थी ? कहीं उसे भी ऐसा तो नहीं लगता था कि अगर उसका बॉय-फ्रेंड नहीं हुआ तो उसकी बाकी सभी दोस्तों में उसकी पूछ कम हो जाएगी ? अगर जवाब ढूंढे तो काफी हद तक सही लगता है | और मेरे ख्याल में यह अहम् की भावना लड़कियों को ज्यादा प्रभावित करती हैं क्योंकि कहते है ना - लडकियां इमोशनली थोड़ी कमज़ोर होती हैं और इसी कारण सहनशीलता भी उनकी कम होती है (माफ़ कीजियेगा लड़कियों, यह कोई तथ्य नहीं है पर अभी तक जो मैंने अवलोकन किया है, उसी के अनुसार बता रहा हूँ) |
पर बात मैं केवल लड़कियों तक ही सीमित नहीं रखना चाहता हूँ | बात तो हर उस लड़के पर भी लागू है जो इस भ्रम में जी रहा है कि एक गर्ल-फ्रेंड होना इस दुनिया में जीवित रहने के लिए एक एक्स्ट्रा तत्त्व है (5 मूलभूत तत्त्वों के अलावा) |
परेशानियां, दिक्कत्तें और अहम् तो हर जगह अपना रंग दिखाएंगे | आखिर कब तक हम इनके सामने अपना सर टिका कर झुक जाएंगे ? आखिर कब तक हम हार मानते रहेंगे ? आखिर कब तक हम इस आधुनिकता की दौड़ में आगे बढ़ेंगे और विवेकशीलता की दौड़ में पीछे ? आखिर कब तक हम अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों और अपने आदर्शों से मुंह छुपाकर भागते फिरेंगे ? आखिर कब तक ?
कभी तो हम हार ही जाएंगे | इस आधुनिकता में, इस विवेकशीलता से, इस संस्कृति से, इन मूल्यों से और इन आदर्शों से | अंततः हमारा सर झुका ही रहेगा जैसे आज इस दौड़ में है | पर सोचिये की वो सर शान से झुका है उसके सामने जो इस संस्कृति का निर्माता है, जिसने इन मूल्यों को एक सुन्दर माला में पिरोकर हम सबको पहनाया है और जिसने हमें जीना सिखाया है | काश हम सब का सर ऐसे झुके और हम शान से कहें - "इस संस्कृति के लिए, इस जहां के लिए, इस ज़िन्दगी के लिए, तुम्हारे लिए ऐ दोस्त जिसे में प्यार करता हूँ, जिसे मैं चाहता हूँ" | उस क्षण को महसूस करिए और आपको सही और गलत का अंदाजा ज़रूर पता चलेगा |

यह तो अब हमारे ऊपर ही निर्धारित है की हम कैसे जीना चाहते हैं | इस कीचड़ में एक दूसरे पर कीचड़ उछलकर या उन लोगों की श्रेणियों में जहाँ इन मामूली से विवेकहीन मनुष्य का पहुंचना या कीचड़ उछालना बस, ना के समान है |
प्यार करें, मोहब्बत करें पर सीमाओं के अन्दर जहाँ आप भी आराम से अपनी ज़िन्दगी जी रहे हों और समाज में हम जैसे कुछ लोगों को भी आप पर इस पोस्ट के जरिये कुछ कहने पर मजबूर न कर रहे हों | तब देखिये दुनिया बड़ी हसीन हो जाएगी और वो मासूमियत फिर से लौट आएगी |

अंत में मैं सभी को छुट्टियों की शुभकामनाएं देना चाहता हूँ | आशा करता हूँ की मैं आप से जल्द-स-जल्द रूबरू होऊंगा और आपकी टिप्पणियाँ मुझसे |
तब तक के लिए टाटा, नमस्कार, आदाब, सायोनारा...

230, मालवीय भवन, बिट्स पिलानी से आखरी पोस्ट इस साल के लिए |

P.S. - मेरे ब्लॉग की सालगिरह 16 अप्रैल को चली गयी | व्यस्तता के कारण कुछ पोस्ट नहीं कर सका | खेद है | पर अच्छा लग रहा है इस ब्लॉग जगत का हिस्सा बनकर और कुछ अजनबियों से रूबरू हो कर |

धन्यवाद

गुरुवार, 7 मई 2009

बेईमान तूफ़ान

बिखरते पत्तों का चेहरे पर लगना,
ठंडी हवा का ज़ुल्फों को चूमना,
खुशबू मिट्टी की तन में उतरना
और हमारा सड़कों पर बेफिक्री से भीगना....
आज मौसम बड़ा बेईमान है, आया यहाँ कोई तूफ़ान है...

ढलता सूरज नहीं,
यह तो बादल का आंचल है,
यह सन्नाटा सुनसान नहीं,
बस आंधी की आहट है,
आज मौसम बड़ा बेईमान है,
आया यहाँ कोई तूफ़ान है...